कविता-विषधर की मर्यादा

कविता

विषधर की मर्यादा


अपनी मर्यादा से पूरित,

हैं बँधे वचन से हिम सदृश।

हे मनुज करो मत इन्हें तंग,

भ्रमित शंकित विषधर भुजंग।


चंम्पा चंदन से अतुल नेह,

एकांत अलहदा सुखद गेह।

कुदरत के संग अनुराग अनत।

रक्षक महि के क्षेत्रज्ञ उरग।


क्या ? सच में हम नित रहे भले !

क्या ? हमने विषधर नहीं छले !

मानव की कलुषित आहों से,

धोखा छल पूरित राहों से।

अनगिनत कुचक्र विधाओं से,


मनुष्य के कृत्यों से क्लान्त हैं सर्प,

जबरन अतिक्रमण और दर्प से।

खिन्न हैं भयाक्रांत हैं सर्प,

मनुज के क्रियाकलापों से।

आशंकित हैं अशान्त हैं सर्प।


दोषारोपित मत उन्हें करो,

विषधर सा विष मुख में न भरो।

सदियों से बनी मित्रता को,

शुचिता पूर्ण चरित्रता को।


जीवंत अक्षुण्ण बनाए रख,

उनका स्वातन्त्र्य बचाए रख।

जंगल जमीन सब समा गए,

सुरसा सी तेरी क्षुधा बढ़ी,

विषधर का घर भी पचा गए।


मैं अभी संयमित हूँ हद में,

आदमी चढ़ा आता मद में।

नैतिकता वचन का भान मुझे, 

अपनी सीमा का ज्ञान मुझे।

मैं अडिग,वचन पाले अब भी,

क्या ? मनुज वचन माने अब भी।


ना धोखे से प्रहार करूँ,

ना पृष्ठभाग से वार करूँ।

आदमी नहीं आदमी रहा,

जहाँ दुग्ध पिये दे चोट वहीं,

सच में ! क्या है आदमी यही।


निर्णय करना,विष अधिक किधर !

है सत्य किधर,है वचन किधर ?

है वचन किधर ?

है धर्म किधर ?

(नाग पंचमी पर विशेष)


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

०२.०८.२०२२ ०३.१२ अपराह्न










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