इश्तिहारी दौर है !!
डिग्रियां खूब थीं बड़ी बड़ी,उस आदमी के
पास में।
पढ़ नहीं पाया वह आँसू,किस काम की ये डिग्रियां।।
कुत्ते गोद में जिस्म से,चिपके हुए देखे गए हैं आजकल।
माँ बाप की नजदीकियां हरगिज़ नहीं मंजूर इनको।।
जानवर हद में हैं अरसे से,मगर इंसान हद में नहीं रहता।
जिस्म से लत्ते काफूर बस समझो,यही तो आधुनिकता है।।
दरिया,समंदर,कश्तियाँ,मछलियां सब खौफ़ में हैं खौफ़ से।
साहिल की जिद है,मैं अब आज़ाद होना चाहता हूँ।।
रईस उसे कैसे किस तरह,क्यों बताया जाए दोस्तो।
द्वार से भूखा कोई,एक कौर भर को लौट जाए।।
जिस्म की भूख नुमाइश,दीवानगी हद दरजे पर है इस दौर।
नज़र कमज़ोर महबूबा,हया अब अलविदा सी है।।
दर्द,अश्क,बैचेनी,बेबसी,पढ़ न पाया उम्र भर जो आदमी।
उसको निरा अनपढ़ नहीं तो,और क्या बोलूं ज़नाब।।
किताब,सबक़,उस्ताद सब चिल्लाते रहे रोज रोज।
आदमी बस बना रह तू ,खुदा बनना छोड़ दे।।
सब समझ आता है यारो,वक़्त मुश्क़िल है अभी।
दौर इसमें समझ आता,ठीक से बस आदमी।।
मुश्किलों का कारवाँ,सब धुँआ धुँआ हो जाएगा।
हौसला,हिम्मत,सदाक़त,साथ से जाने ना पाएं।।
चलो चलें दूर चलें,इस महफ़िल से,लोगों से,शहर से।
सच हुआ रुख़सत यहां से,राज करती जी हुजूरी।।
साफ साफ सरेआम लफ़्ज़,बोलने की तुम्हें
बेक़रारी है।
अज़ीज ये जानलेवा लाइलाज,आपको
बिमारी है।।
सही सही कहते रहोगे महफ़िलों में दोस्त तुम।
हाशिए पर जा मिलोगे,दौर इसका जा चुका।।
अपने हिसाब से चिल्लाते हैं,खूब चैनलों पर
रोज रोज !
इश्तिहारी दौर है नौकरी करनी है बस !!
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२१.०८.२०२२ ०९.०८पूर्वाह्न(२०१)