कविता-घाट की बात !

 


कविता

घाट की वह बात !


स्वप्न का वह दृश्य सुनना !

जिंदगी का मर्म क्या ?

बात सच है जटिल भी,

आइए कुछ निकट सुनना !


स्वप्न देखा वह सुनाता हूँ !

सत्य था वैसे वह मंजर,

टूटते नातों की तड़पन,

जो हुआ देखा बताता हूँ !


स्वप्न देखा मैनें स्वजनो,

मौत के आगोश में हूँ !

कुछ जगा सोया हुआ,

और कुछ कुछ होश में हूँ !

मेरी साँसें थम रही थीं,

क्षण ही क्षण में साथियो।

मर रहा था घुट रहा था,

पल ही पल में साथियो।


सांस की गति रुक गयी थी,

शक्ति सारी झुक गयी थी।

नींद का झोंका सा था वह,

और मैं फिर सो गया घनघोर निंद्रा।

तेज मुख का मिट गया सब,

प्रकाश भी सिमट गया सब।


भोर होते ही खबर,

हर ओर प्यारे हो गयी।

परिजनों और पुरजनो की,

भीड़ भारी हो गयी।

मैं खड़ा हो दूर देखू माज़रा,

कोई कहता पास आ सुनना जरा।


और झट से परे घर से, 

कर दिया था मैं सुनो।

देख कर चौंका नजारा,

बात गहरी है सुनो।

बदल डाले वस्त्र सारे,

और ढक चेहरा दिया।

चल पड़े कुछ लोग लेकर,

इक अलग स्थान पर।


घाट मरघट की कहानी,

कह रहा हूँ मुंह जुबानी।

लोग कुछ कहते सुने,

जल्दी करो क्रियाकर्म।

कुछ दिखाते दिख रहे थे,

मित्र स्वजनों का धर्म।


कुछ बहुत अधीर थे,

और कुछ गम्भीर थे।

और कुछ फोन पर थे व्यस्त, 

और कुछ थे मस्तियों में मस्त।

और कुछ करते इशारे,

सरक लो चुपके से प्यारे।


और कुछ की दृष्टि केवल,

घड़ी पर थी साथियो।

और इक मंजर दिखा,

खुलकर हँसा था साथियो।

मित्र एक सरका वहां से,

और बाहर आ गया।

पूड़ियों की ठेल पर,

भरपेट पूड़ी खा गया।


और फिर मिलकर मुझे,

झोंक डाला दहकते अंगार में।

चल पड़े सब जल्द उठ उठ,

गॉव घर और हार में।

नींद जैसे ही खुली मैं डर गया,

कहीं हकीकत में नहीं तो मर गया।


पास लेटी भार्या बोली सपक,

आ गयी वह निकट जल्दी से लपक।

क्यों पसीने से नहाए दिख रहे हो,

कुछ अलग भयभीत प्यारे दिख रहे हो।

कुछ नहीं बोला बताया कुछ नहीं,

रहस्य जो देखा जताया कुछ नहीं।


स्वप्न सच मे बहुत कुछ,

सच कह गया था।

मैं अकेला था अकेला,

रह गया था।

घाट की वह बात,

दिल पर छा गयी।

स्वार्थ में डूबी कहानी,

दृश्य सारी आ गयी।


✍️ रचनाकार✍️

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

०७.०८.२०२२ १२.२२ अपराह्न


 





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