🌷शेर ओ सुख़न🌷
अंदर कुछ हैं बाहर कुछ हैं !!
शेष हैं या नहीं,इस दौर में ईमान वाले
जेब में डाल कर,वज़नी सी कीमत देख लो।
छीन लेते हैं निबाले,मुफ़लिसों से डांट कर
आइए एक बार इनके,हाल ताजा देख लो।
अंदर कुछ हैं बाहर कुछ हैं,ये बहरूपिये
ईमान की ईंटों से बने,आशियाने देख लो।
तनख़ा कागजों में कम,लेकिन चढ़ावा ज़ोर का
चलो चलें साहब के दर,तारे जमीं पर देख लो।
अपनी उनकी सबकी,जमीनी हक़ीक़त देख लो
ईमान हालात मुश्किलात,और नीयत देख लो।
नारे बुलंद होते हैं,कि बेटियों को बचाया जाए
सवाल ये है किस वक़्त,किस किससे बचाया जाए।
इंसान और भेड़िए मे फर्क कम ही नज़र आता है
जब यही आदमी दरिंदे सा नज़र आता है।
हर ओर हर तरफ हुजूम ही हुजूम नज़र आया
लेकिन इंसान बहुत कम,बहुत कम नज़र आया।
हर तरफ हर ओर,चेहरे पर लगे चेहरे नज़र आए
मैं ढूढ़ता रहा आदमी,बमुश्किल कम नज़र आए।
भागते जा रहे हैं हम उम्रभर,अपने आप से दूर होकर
लगता रहा हमें हम ही तो,जिए शान से खुदा होकर।
तेरी सांस भी नहीं,तू कुछ ख़ास भी नहीं
बदहवास ज़रूर है,ज़रा ग़ौर कर आदमी।
रहनुमा और मुलाज़िम,जब लूटने लगें बस्तियां
ज़रूरी नहीं कि तेरा आशियाना बच ही जाए।
क्यों इंसान गुमशुम है,गुमशुदा इस दौर में
मर्ज क्या है दवा क्या है,पता कुछ तो कीजिए।
महीन धागे रिश्तों के,तार तार हो रहे क्यूँ हैं
कुछ नज़र कुछ जतन कुछ पहल कीजिए।
बमुश्किल रिश्ते जिंदा मिल रहे हैं कहीं कहीं
क़सूर किसका क़सूरवार कौन दख़ल कीजिए।
स्याह रातें ये नशा और ये जश्ने रंगरेलियां
इसे नाम क्या दूँ क्या नहीं कुछ बता दीजिए।
बदन से लत्ते कम और कम हो रहे हैं रोज़
ये बदन नुमाइश तो नहीं,कुछ नज़र कीजिए।
इंसानियत बदली इंसानी नीयत भी बदली
माजरा क्या है क्यों ये उम्दा ख़ासियत बदली।
मासूम की मासूमियत का गुनाह क्या था
क्यों दरिंदा हुआ आदमी इंसानियत बदली।
सर्वाधिकार सुरक्षित
✍️रचनाकार✍️
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१२.०९.२०२२ १०.४१ पूर्वाह्न(२१०)