ग़ज़ल
ना ख़बर ना चिट्ठियां !!
जिंदगी का ये परिंदा कब भरे लंबी उड़ान,
क्या पता कब नींद आए या बदल जाए निशान।
वक़्त का उड़ता परिंदा बदल ना दे हैसियत,
लफ़्ज़,लहज़ा और तेवर,ठीक कुछ कर लीजिए।
ना ख़बर ना चिट्ठियां जाना ही होगा एक दिन,
आइए अपने करम की फिकर कुछ कर लीजिए।
क्या पता कब शाम हो हो जाये ख़ुद की रुख़सती,
उस पहर की इस पहर की बात कुछ कर लीजिए।
सब यहीं रह जाएगा बस शेष होगें करम तेरे,
कुछ करो या न करो इंसानियत कर लीजिए।
हम रहें बस आदमी इतनी रहे हमको ख़बर,
आदमी सी ही फ़क़त कुछ हैसियत कर लीजिए।
मेरा तेरा तेरा मेरा डेरा घेरा कुछ नहीं,
आदमी से आदमी सी बात कुछ कर लीजिए।
होगी जिस दिन रुख़सती आएगा कुछ भी ना नज़र,
अपने अपने बहीखाते ठीक कुछ कर लीजिए।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२१.०९.२०२२ १०.४५ अपराह्न