कविता-मेरे मन की अभिलाषा

 कविता

मेरे मन की अभिलाषा


सूरज सा जीवन हो जाए,सदा सर्वदा 

मस्त रहूँ।

चाहे हो किरणों का घेरा,उदय रहूँ या

अस्त रहूँ।।

अपने पथ पर सदा अथक,जीवन भर 

मैं गतिमान रहूँ।

गिरूँ उठूँ या उदय भाग्य हो,किंचित ना 

भयग्रस्त रहूँ।।


भीषण से भीषण विपदाएं,कटक सहित

आके मग घेरें।

शक्ति मिले निज आत्मशक्ति से,लड़ूँ उठूँ

ना पग डग फेरें।।

हो जीवन निष्कपट निर्विषी,निंदा रथ ना

मम पथ रोके।

चलूँ सुपथ ना चुनूँ कुपथ,बेशक वाधाएँ 

आ मग टोकें।।


हो बेशक भीषण तिमिर घना,मम मन

साहस न टूट पाए।

कौर मिले या मिले पेट भर,पग डग मग

न भटक जाए।।

जीवित हूँ तो दिखूँ भी जीवित,जीते जी

ना ठहर जाऊँ,।

मिले सम्पदा या दुर्दिनता,सम समभाव 

नज़र पा जाऊँ।।


भोर साँझ या मध्यदिवस हो,दिनकर

सा पथगामी होऊँ।

मान मिले या मिले अनादर,या कुबेर 

सा वैभव पाऊँ।।

चाहे हो उर अंतर में,अति कष्ट क्लेश 

यातना घेरे।

रहूँ सदा निर्लिप्त भाव में,मग क्षण भर 

ना भटक जाऊँ।।


हे ईश्वर देना शीतलता,समतामूलक भाव

मनुजता।

सबका हित सबका सुख,ह्रदय बड़ा देना

दयालुता।।

हो जीवन रथ सरल सहज सा,ऐसा कुछ

ईश्वर कर देना।

मानव हूँ मानव बस रखना,हे जगतपिता

ऐसा वर देना।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१८.१०.२०२२ ०७.१८पूर्वाह्न(२२४)








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