संस्मरण
अपने दौर की बात !!
जीवन का प्रत्येक पड़ाव हर एक लम्हा अपने आप में अनूठे अविस्मरणीय घटनाचक्रों को अपने उर अंचल में समाए,सँजोए रखता है, सच कहें तो ये हमारी थाती हैं धरोहरें हैं जिन्हें हम सभी को बचाए रखना चाहिए।
जब तक हम सीमित संसाधनों एव सीमित आवश्यकताओं के साथ रहे तब तक हम ज्यादा प्रसन्नचित और स्वयं के साथ सम्बद्ध रह पाए, जब हमारे घर कच्चे हुआ करते थे तब दिल और जज्बात अधिक जीवंत और स्नेहिल हुआ करते थे। तब हम साधारण जरूर हुआ करते थे,लेकिन विचारों आपसी भाई चारे से बहुत उन्नत सम्रद्ध थे। आपसी तालमेल सहयोग आदि सब कुछ अधिक था सच कहूँ जब घर कच्चे थे और हम साधारण थे तब हम वास्तविकता में सम्रद्ध और असाधारण जीवनशैली में हुआ करते थे। उस समय कहीं अधिक हमारे ह्रदय की धड़कन,प्रेम,अनुराग ज्यादा सजीव और जीवंत था !! हम आपसी स्नेह और भाईचारे को अपनी अकूत सम्पत्ति मानते थे लेकिन जैसे जैसे हम सम्रद्धि सफलता और अपने हेतु में लीन हुए हम आपसी ह्रदय स्पंदनों को दूर बहुत दूर करते चले गए।
अब हम त्यौहारों पर भी सुकून से बैठकर आपस में बतिया नहीं पाते खुलकर हँस नहीं पाते,मूल कारण अब हम एकाकी होते जा रहे हैं इसके अतिरिक्त भी इसके मूल में कई अन्य कारण भी हैं। मुझे बखूबी स्मरण है जब हम गॉंव में सपरिवार दिवाली का पर्व मनाते थे तब एक आनन्दमयी खुशनुमा ह्रदय को प्रफुल्लित करने वाला वातावरण हुआ करता था,सबके मुखमंडल दीप्त होते और सभी ह्रदय से प्रसन्नचित! तब सभी साथ मिलकर लक्ष्मी पूजन करते और फिर मिट्टी के दीयों से मुड़गारी को सज्जित कर देते।और माताजी दीपदान भी किया करती थीं अर्थात एक दूसरे के यहाँ प्रकाशित दीपों को उपहार स्वरूप देने का कार्य इसके पीछे मंशा अपना घर तो सदैव प्रकाशित रहे ही साथ ही हमारे अपने स्नेही जनों के यहॉ भी सदा प्रकाशमय वातावरण बना रहे। तदुपरांत खीलें बतासे गटगटा हाथी घोड़ा (खांड से निर्मित)बांटते और बड़े ही चाव से खाते हम सब भाई बहिन खूब मस्ती करते ठहाके लगते और देर रात तक जागते फिर सो जाते,सुबह जगते तो आंखों में काजल लगा मिलता माताजी ताजी काजल बनाकर लगाती इसके पीछे भी कई किवदंतियों का घेरा हुआ करता था।
सुबह होते ही सबसे पहले छत की मुंडेर पर चढ़कर मिट्टी के दीवले इकठ्ठे करते और उनसे एक बेह्तरीन तराजू का निर्माण करते तराजू के साथ साथ अपने दौर के उन्नत बाँट भी हुआ करते थे (बाँट बनाने के लिए हम लोग ईंट को तोड़कर उसके अलग अलग आकार के टुकड़े करते और उन्हें घिस घिसकर एक उत्तम कोटि का बेजोड़ बाँट बनाते,बाँट बनाने का क्रम दिवाली से पूर्व ही चलता) फिर हम भाई बहिन अपनी अपनी दुकान सजा लेते सामान के रूप में सब्जियां, खिलौने, खीलें,गटगटा और घर मे जमी लौकी की अति विशिष्ट बर्फी और भी अन्य अन्य सामान सजाकर बैठ जाते,पिताजी और बड़े भैया हम से सामान क्रय करते और कुछ पैसे देते ये क्रम जब तक जारी रहता जब तक कि घर के सभी बड़े हमसे सामान न खरीद लें उनसे जो पैसे मिलते वे अपने आप में अनूठे स्नेह को समाहे होते बड़ा ही हर्ष और आनन्द का दौर हुआ करता था।
लेकिन आज की भागम भाग जिंदगी की दौड़ में हम अपनों से तो दूर हुए ही साथ ही हम स्वयं अपने से भी दूर होते जा रहे हैं।सभी अपनी अपनी जिंदगी में खोए से रहते हैं,व्यस्त तो अधिक हैं लेकिन शायद हम अब पहले से मस्त नहीं लगते पता हमें भी है, इस दशा का और हालात सृजन का लेकिन अब हम शायद ! एक अंधे कुएं में फंस चुके हैं जिसकी मुंडेर को ढूंढ पाना अब दूर की बात लगती है अगर वक्त मिले तो विचार अवश्य करें सफलता और सच्ची सफलता के क्या मायने हैं !!
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२४.१०.२०२२ ०५.०१ पूर्वाह्न (२२६)
(शुभ दीपोत्सव )