फेसबुक के योद्धा ?
चेहरे भी सब कुछ !!
साफ साफ बेबाक कहते हैं।
हम सामने कुछ और,
पीठ पीछे कुछ और रहते हैं।
फेसबुक पर तो जागरूक,
हक़ीक़त में हम बेसुध गूंगे बहरे।
हम न ख़ुद के न समाज के,
क्या हम बाकई फेसबुकिए ठहरे।
कैंडल मार्च करने के आदी हैं,
असलियत में हम निरे प्रमादी हैं।
हम अंधी दौड़ दिखावे से ग्रसित हैं,
संवेदनहीन गूँगे बहरे और दिग्भ्रमित हैं।
हमारी संवेदनहीनता चुप्पी,
अपराधीकरण में हिस्सेदार लगती है।
सड़क पर जब लुटे कोई,
नाराजगी गुस्सा कोसों दूर दुबकती है।
उस वक्त पल्ला झाड़ कर,
गेयर मारकर सटक से पलायन करते हैं।
तब अपना गिरेबां झाँकते हैं,
हम क्या हैं कितने असली कितने नकली?
हम वारदात के दौरान चुप क्यों?
मर जाती है आत्मा हमारी उस वक्त क्यों?
शायद हमें भेद करने की बीमारी है,
अपनी और पराई बेटी में,गलती हमारी है।
ये भी हैं मूल कारण अपराध पनपने के,
जिस दिन हम सब खुलकर बोलेगें।
निश्चित मानिए आपके सामने झुक कर,
जिंदा तो जिंदा मुर्दे भी मुख खोलेगे।
लेकिन पहला पत्थर?
समंदर में मारना होगा कौन मारे !!
असमंजस की स्थिती है!
चलो सरक चलें चुपके और भी सारे।
यही स्थिती बढ़ाती है,
अपराध लूट घूस और खूब भृष्टाचार।
सच में इस परिस्थिती का,
इस परिवेष स्थिती का कौन जिम्मेदार?
ये भी मूल कारण हैं आबरू लुटने के,
आये दिन जघन्य घटना घटने के।
जिस दिन हम खुलके बोलना सीख जाएगें,
हो जाएगा भोर दरिन्दे खौफ़ खाएगें।
सोसल साइट के परमबीर महारथियो,
परम् विशिष्ट सजग सुयोग्य सारथियो।
आओ हम धरती पर चलना सीखें,
यथार्थ को समझें सच में सच कहना सीखें।
हम ठीकरा बड़े ही संजीदा ढंग से,
बिना समझे सोचे फोड़ते जाते हैं।
क्या हमें सच में बदलाव चाहिए,
तो ठीक है उठो चलो हवा चलाते हैं।
सरकार का काम है करती है,
कोरी संवेदनशीलता का झुनझुना थमाना।
प्रतीक्षा जनता के भूल जाने की,
फिर तारीख का तिलिस्म और सो जाना।
वास्तविकता में न हमें रिश्ते सीने आते,
और नहीं साथियो हमें रिश्ते जीने आते।
हम तो बस दिखावा करने के पुतले हैं,
हमें तो बस एसीकरण में खूब पसीने आते।
अजीब दौर अजीब फेसबुक मित्र,
फेसबुक वॉल पर दिल से ज्यादा प्यार।
कहो उनसे बस यूँ ही मदद की बात,
देख लेना फुर्र होगें देखकर मुस्कात।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१७.११.२०२२ ०८.२२ पूर्वाह्न(२३८)