शेर-ओ-सुख़न
✍️अपना सफ़र✍️
रास्ता है ज़िंदगानी,सब मुसाफ़िर हैं यहाँ।
कोई जल्दी सफ़र कर ले,कोई थम जाए यहाँ।
क्या शिक़ायत क्या अदावत,क्या मोहब्बत का नशा।
जिंदगी एक दौड़ ठहरी,भागना इसकी अदा।
जो खुशी चेहरे पे झलकी,है उसी की मेहरबानी।
है उसी के रहम से सब,सांस ताक़त ज़िंदगानी।
ज़िस्म की औक़ात क्या है,जो यहाँ रह पाएगा।
जिस मदारी ने बनाया,वह इसे ले जाएगा।
सबकी अपनी है कहानी,सबकी तय है इक सज़ा।
तू खुला छोड़ा गया है,चल डगर तय कर मुकां।
है ख़ुशी का राज़ क्या?है तुम्हें इसका पता।
दूसरे को राह दिखला,बस यही है फ़लसफ़ा।
बहुत आये यहाँ खिलाड़ी,और यूँ ही सो गए।
कुछ समाए आग में,कुछ जमींदज हो गए।
तेरे भीतर जो चमक है,सब उसी की मेहरबानी।
फिर उसी मिट्टी की होगी,ये चमन ये ज़िंदगानी।
हमारा शौक़ हो,कि हम,ज़रा इंसान बन जाएं।
किसी के पैर बन जाएं,किसी के हाथ बन जाएं।
जो कमज़ोर हैं मजलूम हैं,सबकी निगाहों में।
चलो हम बन चलें रहबर,मददगर साथ बन जाएं।
हम यहाँ जो बसर करते हैं,ये भी अपने में अनूठा है।
हर तरह के लोग है यहाँ पर,कोई सच्चा है झूठा है।
कभी कंधे से मिला कंधा,चलेगें यहाँ बहुत।
कभी गलबहियां रहेगीं,छोड़ जाएँगे बहुत।
सच में जिंदगी तो बस,कुछ जिंदादिल ही जीते है।
यहाँ वे रोज़ मरते है,जिन्हें ख़ुद पर यकीं नहीं।
अपनी ताक़त अपनी मेहनत,और हो आंखों में पानी।
ख़ुद को ख़ुद में झाँक ले,है छुपी बेहतर कहानी।
हम तो बस मोहताज हैं,सांस के लम्हात के।
ये ठसक तो है दिखावा,बेखबर अंजाम से।
वह शिकारी ही नहीं,देख डर जाए निशान।
खौफ़ से जो सहम जाए,छोड़ दे अपना कमान।
अगर मर करके भी जिंदा,रह सको तब ठीक है।
नेकियों के पुल बना, और चल अपना सफ़र।
शिकारी बहुत हम में ही छुपे,जो नोंचते टुकड़े
नज़र आते बड़े सुंदर,गजब के हैं मंझे मुखड़े।
ज़िद ज़रूरी है,जिंदा दिखने के लिए मेरे अज़ीज।
कब तलक घुट घुट जियोगे,कुछ क़दम अपने बढ़ा।
बिजलियाँ गिरती हैं,तो गिरने भी दीजिए।
बारिश का मौसम है,इनका गिरना ज़रूरी है।
अब तो मौसम भी बदलता है,रंग आदमी की तरह।
चलो ठीक हुआ इसे भी,रंग आदमी का चढ़ गया।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१९.११.२०२२ ११.४४ पूर्वाह्न(२३९)