कविता✍️अतिक्रमण का संक्रमण !!✍️

 
कविता

अतिक्रमण का संक्रमण !!


ठीक नहीं अतिक्रमण का संक्रमण,

ये संक्रामक सोच का वाहक पैरोकार।

अतिक्रमण कभी हितकर नहीं होता,

स्वरूप कोई भी हो कमतर नहीं होता।


हम क्यों ?करते हैं यूँ हीं अतिक्रमण,

कभी विचारों पर कभी व्यवहारों पर।

कभी मानवीय सोच पर स्वातंत्र्य पर,

कभी कभी प्रकृति प्रदत्त उपहारों पर। 


कभी कछारों पर अतिक्रमण,

कभी पठारों पर अतिक्रमण।

कभी विचारों पर अतिक्रमण,

कभी पहाड़ों पर अतिक्रमण।


उसे साथ मिला हमारे जैसे स्वार्थी नरों का,

अन्यथा उसकी अपनी शक्ती क्या थी। 

नगण्य अप्रभावी असरहीन बलहीन था वह,

लेकिन अतिक्रमण को हमने सहारा दिया। 


जैसे जैसे आदमी की भूख बढ़ती गयी,

और बढ़ता गया दानव सा अतिक्रमण।

हुआ नित प्रतिदिन संसाधनों का दोहन,

सुरसा के मुख समान हुआ अतिक्रमण।


ये सिलसिला कहाँ कब कैसे रुकेगा,

किसी के पास इसका जवाब तो होगा।

अगर हाँ तो उत्तर देने की सामर्थ्य भी,

हाँ तो ठीक अन्यथा सामर्थ्य व्यर्थ ही।


हमारी भूख बहुत विकट विकराल,

हम स्वयं में है एक प्रश्न मायाजाल। 

हमें अतिक्रमण करने का नशा है,

हम और हमारा अस्तित्व इसमें फसा है।


हमने लौटाया क्या ?प्रदूषण संक्रमण,

और नदी नहरों पर जबरन अतिक्रमण।

चट्टानों के शांतमय वातावरण पर,

स्वातंत्र्य,पर्यावरण पर बलात अतिक्रमण।


कभी परिंदों के घरों पर अतिक्रमन,

जल जलाशय पोखरों पर अतिक्रमन।

इस अतिक्रमण की लालसा बड़ी है,

सुरसा के सदृश मुख लिए खड़ी है।


क्यों है इसकी परिधी इतनी विशाल,

इतनी भयावह इतनी अनन्त क्यों हैं ? 

अतिक्रमण करने के भाव विचार,

इतने निष्ठुर इतने प्रबल क्यो हैं ?


हमने क्यों नदियों को प्रदूषित किया,

हमने क्यों सभ्य समाज दूषित क्या।

विचारों से मजहबी बयारों से,

कदाचित विषैले शब्द प्रहारों से।


हम आक्रांता तो नहीं रहे कभी,

हम सदैव मनुजता के प्रहरी रहे।

हम अतिक्रमणकारी क्यों हो रहे हैं,

नीति सिद्धान्त संस्कारों को खो रहे हैं।


हम क्यों करते हैं अतिक्रमण,

कभी छल से कभी बल से।

अन्याय पूर्ण अमानवीय ढंग से,

विचारों,व्यवहारों पर अतिक्रमण। 


हमने ही अतिक्रमण किया है,

जंगलों पर परिदों के घरों पर।

उनने तो नहीं क्या अतिक्रमण,

ना कभी हम पर न हमारे घरों पर।


हम इतने अतिक्रमणकारी क्यों हैं ?

हम अपनी सभ्यता पर भारी क्यों हैं ?

हमने क्यों पत्थरों की बागवानी की,

हमने क्यों स्वयं से स्वयं बेईमानी की।


मौका मिलते ही मर्यादा उल्लंघन,

नीतियों,सिद्धांतों पर अतिक्रमण।

मानव होते हुए अमानुषिक आचरण,

कब रुकेगा मानवजनित अतिक्रमण।


चिड़ियों वन्यजीवों के हमने घर खाए,

पोखर ताल तलैया खाए खूब पचाए।

हम सच में क्या हैं एक बार पता करो,

क्या हम जिंदा हैं पता करो पता करो।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२८.११.२०२२ ०८.५८पूर्वाह्न(२४२)

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