व्यंग्य
रेबड़ी चलन वरदान !!
जब रेबड़ी शुगर से गलबहियाँ कर ले,तब सवाल उठने स्वाभाविक हैं, लाजिमी हैं। ठीक वैसे ही जैसे बगुला की जल तपस्या शक के घेरे से मुक्त नहीं हो पाती या फिर जब चोर सिपाही वफादार हो जाएं या यूँ कहें जब वे दोनों बेहद करीब हो जाएं साझेदार हो जाएं तब तो जनता की सुरक्षा में सेंध लगना तय हो ही जाती है।
आज के माहौल में नेता क्या,अपराधी क्या,सरकारी मुलाज़िम क्या,मतदाता क्या, सबके सब रेबड़ी जरूर चखना चाहते हैं कुछ तो रेबड़ी से पेट भर लेना चाहते हैं बिना शुगर की चिंता किए हुए, वैसे छुपा नहीं है सरकारी बाबुओं का लिफाफे रूपी रेबड़ी से स्नेह,नृत्यंगना के समक्ष भद्र पुरुषों का उसके मनमोहक सौंदर्य रूपी रेबड़ी के प्रति आकर्षण,रेबड़ी की आभा पूनम के चाँद जैसी होती है बिल्कुल श्वेत,रेबड़ी चलन लोकतंत्र की सुंदर छटा ही तो है,इसी के इर्दगिर्द घूमता है आधुनिक राजसिंहासन,सब राजनैतिक दल इसके समक्ष नतमस्तक होने को कतारबद्ध हैं।
सुना जाता है ये रेबड़ी सभ्यता का अभ्युदय दक्षिण भारत के महान राजनीति के जादूगरों द्वारा चलन में लाया गया। जिनका मूल उद्देश्य लोभ और लालच देकर या कुछ टुकड़े फेंक कर गद्दी हासिल करना था। मुफ्त के जाल में जनता, मतदाता को फँसाने हेतु एक प्रयोग किया गया अर्थात ये प्रयोग बेहद चमत्कारिक ढंग से सफल भी हुआ और निरन्तर परिष्कृत उन्नत भी !! भारतीय राजनीति में कमाल कर दिया इस रेबड़ी प्रयोग ने, रेबड़ी के जाल में फँसते गए वोटर,मात्र और मात्र किलो दो किलो दानों के लिए बहेलिया रूपी नेताओं ने जाल में फँसा लिया। अब सर्वत्र देखा जा सकता है कि कैसे देश समाज पूरी की पूरी सियासी जमात रेबड़ी चलन के जाल में फंसता चला जा रहा है। शायद ही अब कभी मुक्त हो पाए इस परंपरा से, और शायद ही कोई जननेता इन बेड़ियों को काट पाने में सक्षम हो पाए या दिखे।
जबसे रेबड़ी चलन का प्रयोग सफल हुआ अर्थात कुर्सी पाने का अमोघ अस्त्र सिद्ध होने लगा, फिर क्या था सभी दलों में, नेताओं में रेबड़ी जी को नव यौवना की तरह अपनी बाहों में समाने एव दिल की गहराइयों में स्थान देने की परिपाटी चल पड़ी, फिर कोई इसे जनकल्याण बताकर गले लगाता और कोई कुर्सी की चाह में लेकिन दुरुपयोग राजधन का ही होता दिखा लोग काम से भागने से लगे क्योंकि रेबड़ी सभी पर कृपा बनाती रही,लेकिन रेबड़ी के प्रति आकर्षण किसी ओर से कम नहीं हो सका।
रेबड़ी जी की एक खासियत है वे बेहद मीठी और मिलनसार हैं, वे खूब मनमोहकता से परिपूर्ण हैं। जब भगवान के समक्ष चढ़ें तब ये प्रसाद,जनता के समक्ष तब कुर्सी का लालच,अफसर के समक्ष चढ़ें तब चढ़ावा और नेता के समक्ष चढ़ें तब पार्टी के प्रति श्रद्धा लेकिन एक बात है रेबड़ी बड़ी सहन शील स्वभाव की ठहरीं! इन्हें न काले से नफरत ना गोरे से, न चितकबरे से न किसी जाति पंथ से,न हिन्दू से अगाध प्रेम न मुस्लिम से द्वेष, इन्हें किसी से कोई मतभेद नहीं सच में रेबड़ी जी सेकुलर जो ठहरीं फुल्ली सेकुलर….
लेकिन कभी कभी अगर रेबड़ी जी से ज्यादा प्रेम कर जाओ उम्र देखे बगैर अथवा ज्यादा उनका स्वाद,सामीप्य पा जाओ तो शुगर बढ़ाने में पीछे नहीं रहतीँ। फिर शुगर चाहे आदमी का बढ़े या अर्थव्यवस्था का! उन्हें इससे कोई लेना देना नहीं,वे अपना अथाह स्नेह उड़ेल ही देती हैं। लेकिन आधुनिक नेताओं को भी रेबड़ी जी से अथाह प्यार होता जा रहा है, उन्हें क्या फर्क पड़ता है चाहे अर्थव्यवस्था को शुगर हो या राजव्यवस्था को,या फिर कर्ज रूपी शुगर देश रूपी शरीर को अंदर ही अंदर खोखला कर जाए !! यदाकदा कुछ नेता चिल्लाते मिल भी जाते हैं रेबड़ी से इश्क,बेपनाह मोहब्बत बेहद जोखिम भरी हो सकती है लेकिन वे भी कम नहीं उन्हें भी खूब गलबहियां नैन मटक्का करना आता है रेबड़ी रानी से…
लंबे समय से अब तक लगभग अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त में रेबड़ियाँ दी जा रही हैं,स्वरूप बदल बदल कर, बड़ा इश्क है नेताओं को रेबड़ियों से, रेबड़ी बड़ी निराश है शायद उसका दुरुपयोग पहले कभी किसी दौर में ऐसा नहीं हुआ जैसा मॉडर्न इंडिया में हो रहा है। वह कहती हैं क्या हो गया है इन नेताओं को जब ये मुझे स्वयं गले लगाएं तब जन उपयोगी और जब वे गले लगाएं तब अर्थ का अपव्यय, अरे! कोई है जो मुझे न्याय दिला पाए।
इतने में एक रोता बिलखता नागरिक आ धमकता है रेबड़ी रानी के सम्मुख, हे! रेबड़ी रानी तेरी महिमा अनन्त है अपरिमित है तू इस कलिकाल के राजसिंहासन को बचाने हेतु साक्षात वरदान है मुझे भी अभय दान दिलवा दे रेबड़ी माँ,रेबड़ी बोली बताइए क्या समस्या है।
हे रेबड़ी मेरी व्यथा इतनी है कि मैं बोलता हूँ! यह बोलना अब अभिशापित सा हो रहा है, जो देखता हूँ वही बोलता हूँ यही मेरा अपराध है, और हाँ एक बात और हमें तो नेता से भी डर लगता है चोर से भी और पुलिस से भी। हर ओर डर ही डर! लेकिन पुलिस कहती है उसे भी भय लगता है, गुंडों से और नेताओं से, पता नहीं कब उल्टा दाव चल जाएं, लेकिन गुंडा कहता है, न मुझे नेता से डर लगता है और न मुझे पुलिस से! इसका क्या कोई सम्बन्ध आप से है,जो इतना निडर होकर सरकारी आवासों में स्वछन्द विचरण करता हैं ये, रेबड़ी बोली ये सब सत्य है ये सब मेरे ही वशीभूत हैं मैं ही हूँ मेरे रूप अनेक हैं सब मेरे ही मोहपाश में आते जा रहे हैं वालक!!
अगर तू जानना ही चाहता कि इसमें मेरी भूमिका क्या है तो सुन नेता को गुंडों अपराधियों से भी रेबड़ी खानी हैं और पुलिस से भी,पुलिस को अपराधियों से भी सांठगांठ रखनी है नेता से भी, तो हुआ ना यहॉ पर भी मेरे बदले रूप का प्रभाव,मैं सदैव रहूंगी हमेशा सर्वत्र सर्वदा……रेबड़ी ठहाका मार कर हँसती चली जाती है,नागरिक जमीन पर गिर पड़ता है।….
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१२.१२.२०२२ ०३.५१ अपराह्न(२४७)