कविता
"आदमी "
गले लगाकर सहला दो "बस",
दर्द मन के सारे कह देता है आदमी।
कितना कमजोर कितना सरल,
कितना अपना सा होता है आदमी।
एक बार सुनो तो सही मन के उद्गार,
कुछ टटोलो थपथपाओ कंधे पे हाथ रक्खो।
वह बोल देगा अंतर् की वेदनाएँ झार,
चलो तो एक बार पग पग साथ साथ रक्खो।
झाँको तो सही उसके ह्रदय प्रदेश में,
छुपे भावों को कुरेदो बतियाओ बस यूँहीं।
पलपल टूटता जुड़ता पाता खोता है आदमी,
कच्ची मिट्टी के समान बस होता है आदमी।
कोई कोई बाहर से कड़क अंदर से नरम,
परिस्तिथियों के हिसाब से ढ़लता है आदमी।
कोई कोई अंदर से क्लान्त बाहर से शांत,
जीवन के साथ पास पास चलता है आदमी।
विषम सम जीवन उधेड़बुन की सीवन,
प्यार भृम दूरियाँ भ्रांतियों के साथ साथ।
ताप शिशिर मेघ बसंत सा यौवन धार्य,
सतत अनवरत कार्यशील होता है आदमी।
मानवीय जीवन विषमताओं समताओं का खेल,
जोश ह्रास कलह मन के द्वंदों पाशों का मेल।
कभी प्रसन्न गात कभी छुप छुप रोता है आदमी,
फिर भी धैर्य सह नित प्रयासरत होता है आदमी।
कितना कमजोर कितना सरल,
कितना अपना सा होता है आदमी।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२३.१२.२०२२ ०५.३५अपराह्न (२५०)