।। कविता।।
ठंड ठंड ठंड
कड़कड़ाती ठंड ठंड का घमंड,
कपकपाते होंठ मात्र बृक्ष ओट।
बृक्ष तले शेष आदमी विशेष,
ठंड ठंड ठंड आ गई री ठंड।
बूढ़ा "बृक्ष" पास,था निरा उदास
इस करबट उस करबट,
बदलता करबट,करबट करबट।
नींद कोसों दूर सुदूर बहुत दूर,
खाली पेट तंग उड़ता जाता रंग।
सर्द हवा के थप्पड़ कर रहे विहाल,
पकड़ पकड़ गाल मार गाल गाल।
सरकारी रस्म फाइलों का तिलस्म,
अलाव का आदेश कंपकपाते जिस्म।
सर्द हवा ठंडी चल रही घमंडी,
हनक दर्प साथ हो कोई बलात।
सितम सितम सितम,ठंड का सितम,
"बूढ़ा" कंपित गात,हाथ खाली हाथ,
आधा पेट "खाली पेट",रोज रोज रोज।
नाम के थे लोग हर तरफ थे लोग,
स्वयं में स्वयं मुग्ध,मुग्ध मुग्ध मुग्ध।
चुप्प चुप्प चुप्प दिख रहे थे चुप्प,
था गजब सयोग दिन में रात घुप्प।
सूरज का आगमन,मध्यम मध्यम,
किरणों का वितरण,सम सम सम।
ना भेद ना रंग,ना मजहब ना पंथवाद,
किरणों का शुद्ध शुद्ध मनुष्यवाद।
दोपहर का समय,चमचमाती कार,
कार में ठुसे घुसे,निकले दस सवार।
देखने में अमीर,हुष्टपुष्ट शरीर,
मीडिया के संग,अजब गजब ढंग।
घेरा मुझे आय,पास आये धाय,
कंबल एक थाम,आदमी तमाम।
पास पास पास, हो गए वे "पास",
फोटुओं का जाल,तामझाम नाम।
तामझाम नाम,था बड़ा सा काम।।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
२६.१२.२०२२ ०५.३०अपराह्न(२५१)