जन कवी,शासनिक कवी !
जन कवियों की प्रजाती विलुप्तप्राय !
शेष कम,अत्यधिक अल्प,बस कुछ ?
धीरे धीरे गुम हो रहे हैं जनवादी कवी,
उपेक्षित अश्पृश्य की भाँति शनै शनैः।
शासनिक कवियों की पाँति पाँति दृश्य,
मंचों रंगमंचों राजमंचों पर भाँति भाँति।
जन कवी विद्रोही लगे सत्ताधीशों को सदा,
क्योंकि वे मुँह देखी कहने के अभ्यस्त नहीं।
वर्तमान परिद्रश्य देशकाल काल वातावरण,
श्रेयस्कर है उपयुक्त है दरबारी कवियों हेतु।
जन कवी चुभते हैं शूल सदृश दिवस रात,
वे करते हैं शब्दों के तीक्ष्ण प्रहार आघात।
उनकी कलम लिखती है धारदार स्पष्टतः,
बिना लागलपेट विसंगतियों को अक्षरसः।
न पुरस्कार का मोह न अनादर से छोह,
करते हैं चोट खुलकर शब्दों के शूल छोड़।
चारण कवियों की दृष्टि में वे अश्पृश्य,
अयोग्य से अराजक से विद्रोही से दृश्य।
क्योंकि वे न छपते हैं ना कहीं बिकते हैं,
इसलिए वे नगण्य अ सरकारी से लगते हैं।
वे देख पाते हैं साफ साफ ख़ामियों को,
वे लिखते हैं बोलते हैं कटु सत्य अनवरत।
उन्हें बस राष्ट्र हितार्थ हेतु लिखना आता है,
जनकवी ही सच सच बेबाक बोल पाता है।
वह होता है गुणगान में पूर्णतः विफल,
लेकिन जनवादिता का पक्षधर सबल।
कवियों में भी होते हैं पक्ष सपक्ष विपक्ष,
वे बोलते हैं साफ साफ सटीक निष्पक्ष।
सियासी कवी होते हैं चतुर श्रेष्ठ सुयोग्य,
सत्ता के समक्ष झुके झुके पूर्ण भाव।
उनकी जुबान रिझाने हेतु सदैव तत्पर,
जन कवी तटस्थ सदैव जन आशाओं पर।
असाधारण नर ही बन पाते हैं जन कवी,
जिन्हें दृश्य होता अंतर् का दर्द पीड़ा भेद।
जो परख पाते हैं सामाजिक भारों को,
पीड़ा को कराह को आह को प्रहारों को।
लेकिन उन्हें मिलती है अपार उपेक्षा,
समस्त उम्र भर पुरस्कार स्वरूप सतत।
कभी अपमान कभी मान यूँहीं अनवरत,
कभी स्वयं को बचाना है कभी खोना है,
जन कवी होना तो असाधारण होना है।
शिव शंकर झा "शिव'
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२९.१२.२०२२ ०३.३९अपराह्न(२५३)