ताउम्र हम रहे,दिल के क़रीब कम
चश्मों में कुछ रहे,रस्मों में कुछ रहे
हम आदमी से हैं,क्या आदमी भी हैं
वादों में कुछ रहे,कसमों में कुछ रहे
दिखते हैं क्या हमें,आँखों में अश्क भी
दिख गए तो कुछ रहे,वरना क्या कुछ रहे
लुटती रही ग़र सामने,अपनों की आबरू
छुप गए तो बुत रहे,बोले तो कुछ रहे
जिंदा तो थे मगर,जिंदा न दिख सके
ना इनके कुछ रहे,ना उनके कुछ रहे
आए गए फिर खो गए,दुनियां की भीड़ में
ना बन के कुछ रहे,ना मन के कुछ रहे
ना थाम हाथ चल सके,ना साथ साथ चल सके
बाहर से कुछ रहे,अंदर से कुछ रहे
डर डर के ग़र जिए,किस वास्ते जिए
ना अपने कुछ रहे,ना सपने कुछ रहे
आए गए फिर मिल गए,बस यूँही ख़ाक में
ना रब के कुछ रहे,ना सब के कुछ रहे
मेरा ही मेरा सब यहाँ,हम थे नशे में चूर
नफ़रत में कुछ रहे,ग़फ़लत में कुछ रहे
सूरज की रोशनी में,ना आ सका नज़र
बस ख़ुद में कुछ रहे,कुछ ज़िद मे कुछ रहे
आओ गले लगें,नफ़रत को भूल कर
तुम हम में कुछ रहो,हम तुम में कुछ रहें
थोड़ी सी जिंदगी है,कब हो किधर ख़तम
मिलकर के कुछ रहें,खुलकर के कुछ रहें
इंसानियत के खातिर,हरदम रहें खड़े
इस दौर कुछ रहें,हर दौर कुछ रहें
तेरा मैं दर्द समझूँ,तू मेरा दर्द समझे
इंसान कुछ रहें,एहसान कुछ रहें
कोशिश ज़रूर हो,हम भी तो कुछ रहें
जज़्बात कुछ रहें,एहसास कुछ रहें
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०२.०१.२०२३ ११.२५पूर्वाह्न(२५५)