कविता-पहाड़ का दर्द

 

कविता

पहाड़ का दर्द


मारे किसने शूल प्रकृति के उर में,

कौन घुसा बल पूर्ण अचल के घर में।

किसके हैं ये कृत्य कौन ये कृत्य किया है,

शांति सनेही पर्वत के घर नृत्य किया है।


भूधर का सीना छलनी करने का साहस,

किया कौन ये कृत्य अमानुष सा दुस्साहस।

जिन्होंने औषधि नाना बिधि देकर हमें सँवारा,

हमने उनके ह्रदय क्षेत्र में बरबस भाला मारा।


हम दिन प्रतिदिन रहे भेदते उनके सीने, 

हमने उनके शांतिपूर्ण जीवन सुख छीने।

हमें चाह थी कैसे हो जगमग घर सारा,

इसी चाह के चलते हमने भूधर छल से मारा।


दर्द कराह घुटन की बढ़ती गति नित देखो,

उनके सीने का दर्द आह और दुर्गति देखो।

हम खो चुके हैं कान और सुनने की क्षमता,

नेत्र ज्योति क्या गयी प्रकृति का दर्द न दिखता।


दैत्यनुमा यंत्रो के बल पर हम कूदे हुंकार,

छलनी सीना दुष्कर जीना भूधर करे पुकार।

रे ! मानव तू सोच तनिक तू मानव कितना,

क्या है क्या है शेष बता चल जिंदा कितना।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

कवि एवं स्वतन्त्र लेखक

१४.०१.२०२३ ०१.५५ अपराह्न(२५९)



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