अशआर✍️गुफ़्तगू✍️

 

"अशआर"

गुफ़्तगू

✍️✍️

कर लो ज़रा अभी,अपनों से गुफ़्तगू

फिर ख़्वाब में कहाँ,असली सी गुफ़्तगू


कम हो रहा है रोज़,साँसों का सिलसिला

कर ख़ुद से गुफ़्तगू,कर उनसे गुफ़्तगू

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सब चल रहे बने ठने,किरदार हैं मगर

ना रात की ख़बर,ना साथ की ख़बर


कोशिश करें चलें,मग़रूर ना हों हम

अपनी भी हो ख़बर,हो उनकी भी ख़बर

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अपने से थे मगर,अपने न हो सके

तन्हा ही चल पड़े,ना संग हो सके


श्वासों का कारवाँ,होता रहा ख़तम

ना साथ चल सके,ना संग चल सके

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हम और आप भी,क्या क्या बने रहे

असली में क्या कभी,असली बने रहे


देखा जब गौर से,शीशे में अक्स जब

असली तो थे मग़र,नकली बने रहे

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हम आप और वे,कितने क़रीब हैं

ग़र साथ साथ तब,बेहतर नसीब हैं


होकर के दूर दूर,रहना भी क्या रहा

ग़र दूर हैं तो हम,निहायत गरीब हैं

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आंखों में ख़्वाब साथ ले,जीते रहे हैं हम

चलते रहे हैं हम,ख़्वाबों के साथ हम


मौसम ख़िलाफ़ था,अपने ख़िलाफ़ थे

हम हाथ थाम चल पड़े,उनके ही साथ हम

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था इक अलग नशा,वह दौर और था

अपना भी रंग था,अपना भी ठौर था


लेकिन हवा थी वह,आयी चली गयी

थी मस्त जिंदगी,क्या जोर शोर था

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रिश्तों को जानना,फिर उनको साधना

सच मानिए ज़नाब,हाथी है बाँधना


आओ चले चलें,बस यूँ ही एक बार

आओ गले लगें,दिल दिल को थामना

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पढ़ते रहे ताउम्र "हम',किताबें फ़िजूल में

आँखें न पढ़ सके,क्या ख़ाक पढ़ सके


टूटे उदास दिल,दिल में तड़प भी थी

ना उनको पढ़ सके,ना इनको पढ़ सके

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कागज़ सी जिंदगी,लिखना संभाल कर

लिखते चले चलो,कुछ प्यार का सफ़र  


हम उनमें जा बसें,वे हम में आ बसें

इक कारवाँ बने,हो खुशनुमा डगर

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हवा हवा सी जिंदगी,साँसों की गुफ़्तगू

आओ चलो करें फिर,फिर से गुफ़्तगू


मुश्किल है वक़्त 'ठीक है"हँसते चले चलो

आओ करें कुछ गुफ़्तगू ख़ुद ही से गुफ़्तगू

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सर्वाधिकार सुरक्षित

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार/शायर

१५.०१.२०२३ ०६.१७ पूर्वाह्न (२६०)






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