"अशआर"
गुफ़्तगू
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कर लो ज़रा अभी,अपनों से गुफ़्तगू
फिर ख़्वाब में कहाँ,असली सी गुफ़्तगू
कम हो रहा है रोज़,साँसों का सिलसिला
कर ख़ुद से गुफ़्तगू,कर उनसे गुफ़्तगू
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सब चल रहे बने ठने,किरदार हैं मगर
ना रात की ख़बर,ना साथ की ख़बर
कोशिश करें चलें,मग़रूर ना हों हम
अपनी भी हो ख़बर,हो उनकी भी ख़बर
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अपने से थे मगर,अपने न हो सके
तन्हा ही चल पड़े,ना संग हो सके
श्वासों का कारवाँ,होता रहा ख़तम
ना साथ चल सके,ना संग चल सके
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हम और आप भी,क्या क्या बने रहे
असली में क्या कभी,असली बने रहे
देखा जब गौर से,शीशे में अक्स जब
असली तो थे मग़र,नकली बने रहे
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हम आप और वे,कितने क़रीब हैं
ग़र साथ साथ तब,बेहतर नसीब हैं
होकर के दूर दूर,रहना भी क्या रहा
ग़र दूर हैं तो हम,निहायत गरीब हैं
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आंखों में ख़्वाब साथ ले,जीते रहे हैं हम
चलते रहे हैं हम,ख़्वाबों के साथ हम
मौसम ख़िलाफ़ था,अपने ख़िलाफ़ थे
हम हाथ थाम चल पड़े,उनके ही साथ हम
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था इक अलग नशा,वह दौर और था
अपना भी रंग था,अपना भी ठौर था
लेकिन हवा थी वह,आयी चली गयी
थी मस्त जिंदगी,क्या जोर शोर था
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रिश्तों को जानना,फिर उनको साधना
सच मानिए ज़नाब,हाथी है बाँधना
आओ चले चलें,बस यूँ ही एक बार
आओ गले लगें,दिल दिल को थामना
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पढ़ते रहे ताउम्र "हम',किताबें फ़िजूल में
आँखें न पढ़ सके,क्या ख़ाक पढ़ सके
टूटे उदास दिल,दिल में तड़प भी थी
ना उनको पढ़ सके,ना इनको पढ़ सके
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कागज़ सी जिंदगी,लिखना संभाल कर
लिखते चले चलो,कुछ प्यार का सफ़र
हम उनमें जा बसें,वे हम में आ बसें
इक कारवाँ बने,हो खुशनुमा डगर
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हवा हवा सी जिंदगी,साँसों की गुफ़्तगू
आओ चलो करें फिर,फिर से गुफ़्तगू
मुश्किल है वक़्त 'ठीक है"हँसते चले चलो
आओ करें कुछ गुफ़्तगू ख़ुद ही से गुफ़्तगू
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सर्वाधिकार सुरक्षित
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार/शायर
१५.०१.२०२३ ०६.१७ पूर्वाह्न (२६०)