कविता
जीवन है कंटक पथ !
चाहता है प्रत्येक जगत में,
दौलत शोहरत पद सम्मान।
चाहता कौन नहीं जीवन में,
उन्नत्ति उच्च पदस्थ मचान।
किंतु मित्र मानव के वश में,
रहा समय का चक्र नहीं।
लक्ष्य बहुत कम मिल पाता है,
इच्छा के अनुसार कहीं।
षणयंत्रों के शूल मार्ग में,
मिलते जाते अड़े पड़े।
कोटिशःबार अनादर मिलता,
मिलते पत्थर बड़े बड़े।
आत्माबल पर चोट शूल सी,
मिलती रहती प्रहर प्रहर।
किंतु धीर नर नहीं ठिठकते,
चलते नित निर्भीक डगर।
होगा निश्चित मन शंकित भी,
चेहरों पर चेहरे लखि लोगे।
दोहरे लोग चरित्र भी दोहरे,
स्वाद भेद मन के चखि लोगे।
नित पथगामी रहना होगा,
जीवन है कंटक पथ का घर।
अपने कंधे कदम भी अपने,
चल पथ पर सानन्द धीर नर।
चाहेगें बहु लोग तुम्हें जब,
तुम जब कुछ ऊँचा पाओगे।
छोड़ खड़े होगें बहु तुमको,
जब पथ पर धक्के खाओगे।
यही विचित्र योग जीवन का,
समझ सोच मत मन पछतान।
है अधिकार कर्म पर सुन नर,
शेष सकल प्रारब्ध विधान।
चलो सदा तुम अपनी धुन में,
जय रण या फिर मृत्यु वरण हो।
देखो एक बार स्वयं का बल,
सत्य विवेक नीति का प्रण हो।
थाल सजा कर नहीं मिलेगी,
इतना तुम रख लेना ध्यान।
विजय छिपी है कंटक मग में,
रुक मत चल रे पथ इंसान।
कभी हताशा कभी मोद बहु,
जीवन का अद्भुत विज्ञान।
कभी मिले पहचान जगत में,
कभी नहीं बचती पहचान।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२२.०२.२०२३ ०८.३५ पूर्वाह्न(२७४)