अशआर✍️मिले तो थे✍️

 

"अशआर"

✍️मिले तो थे✍️


मुक़द्दर के हिसाब में,रद्दोबदल होती नहीं

फर्श का अर्श का,सब फ़ैसला ऊपर से है


शिक़ायत अदावत नाराजी,किसी से नहीं

मग़र हमें मुँह देखी,बात कहनी नहीं आती


हम भी हैं ख़्वाब में,तुम भी हो ख़्वाब में

डूबे रहे ता उम्र हम,ख़्वाबों के ख़्वाब में


हमने अपने द्वार पर,शीशा लगा रक्खा है एक

आइए एक बार मिलने,मग़र चेहरा देख कर


वह दिखा देगा यक़ीनन,दाग़ चेहरे के सभी

वह मुलाज़िम है नहीं,जो बात मुँह देखी कहे


मिले तो थे वे मगर,दिल से न मिल सके

यूँ मिलने का शऊर,हमें रास नहीं आता


मुआफ़िक़ वक़्त में,सब साथ देते हैं अज़ीज

वक़्त की आदत बदलना,आदतन मजबूर है


खोखले दावे रहे,और हम भी पूरे खोखले

जिंदगी चलती रही बस,खोखले अरमां लिए


इश्क़ ईमान और इंसान,रहने की तमीज़

हो अगर ये ख़ासियत,तब कहीं हो आदमी


आईने के सामने चल,अक़्स अपना देख ले

ख़ुद पता चल जाएगा,ईमान अपना देख ले


मुफ़लिसों की अंजुमन तक,जाइए तो जाइए

देखिए क्या क्या उधर है,देखकर कुछ आइए


कुछ ख़्वाब कुछ अश्क़,कुछ उम्मीदों की आस

चलता रहा ताउम्र बस,ख़्वाबों को लाद कर


जिनको अपनी हैसियत का,हो अगर भारी गरूर

चढ़ रहा हो रोज़ सिर पर,अपने होने का सुरूर


जाएं यूँ ही एक दिन,घाट मरघट के क़रीब

समझ आएगा यक़ीनन,जान पाओगे ज़रूर 


एक चिंगारी उठी थी,छप्परों के पास में

वह हवा को नौंत आया,जेठ के ही मास में


जल गए घर गॉव छप्पर,और सब खलिहान भी

जिद उसे वहां ले गयी,पहुँचा न जहाँ शैतान भी


आदमी को आदमी,समझे हो ग़र तुम आदमी

फिक्र फिर क्यों आईने की,नज़र भर के देखिए


कितने आए खो गए,फिर सो गए चुपचाप यहाँ

था कभी जिनका दबदबा,था कभी जिनका रसूख़


हर किसी की अपनी आदत,और अपनी ख़ासियत

फर्क क्या है ये सभी,अपने ही ठहरे दोस्तो


मैं दरिया को ढूंढ़ता हूँ,समंदर के बीच में

जारी सफ़र है ढूंढना,कुछ आदमी हैं ढूंढने


हम किनारे बैठ कर,कश्ती बचा क्या पाएंगें

उतरना होगा ही होगा,हमें उस पानी के बीच


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

०५.०२.२०२३ ०८.०५पूर्वाह्न(२६७)


Tags

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

buttons=(Accept !) days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !