चल रहा हूँ ..
संघर्षों का घर है जीवन,
नित नूतन उधेड़बुन सीवन।।
मुट्ठी भर अपनी मात्र भूख,
है चाह उगें बंजर में रूख।।
हूँ सतत अथक गति मान,
मिथक तोड़ने की जिद ठान।।
चलता रहता शूलों के साथ,
अंतर् शक्ती के थाम हाथ।।
सीखा नहीं हारना भय से,
न मन से,न कलह से,न स्वयं से।।
न किंचित उतार चढ़ावों से,
न संशय से,न भय से,न घावों से।।
बाधाओं को रौंदता हुआ,
चल रहा हूँ नित नित पथ पर।।
हताशा के साम्राज्य के सम्मुख,
अडिग सजग मन के रथ पर।।
थकना स्वीकार नहीं होता,
क्षण क्षण पाता पल पल खोता।।
कुछ दे पाऊँ वसुधा के हेतु गति रहते,
कुछ शब्द काव्य के पुष्प श्वास के रहते।।
टूटना नहीं सीखा मन से,
बेशक हो जाऊं खंड खंड तन से।।
निर्णय प्रकृति के हाथ सौंपता चलता हूं,
संघर्षों के साथ सतत डग भरता हूँ।।
पग पग बाधाएं पर रुका नहीं हूँ,
बस चाह शेष भारत भू को कुछ दे दूँ।।
धन धान्य नहीं दे पाऊं इसे,
कुछ शब्द संजोकर पुष्प रूप में दे दूँ।।
है ऋण वसुधा का अधिक,
दिया है इसने अनुपम प्यार।।
लौटा पाऊँ थोड़ा सा ऋण,
अगणित हैं इसके उपकार।।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०९.०२.२०२३ ०८.२३पूर्वाह्न(२६८)