अशआर-जनता जाग!

 

"अशआर"

जनता जाग !


सियासत सियासी नशा,और सियासतदाँ

मिल गया क्या आपको,तोहफ़े में सारा आसमाँ


परिंदों की उड़ान पर,पाबंदियां क्यों बोलिए

क्या रहेगा बस तुम्हारा,नीला सारा आसमाँ


होटलों में खुल रही,बोतल भी शर्माती रही

खादीधारी एक हैं सब,देख मुस्काती रही


सबके सब ये एक हैं,बस दिखाबे की लड़ाई

जनता बस लड़ती रहे,ये तो ठहरे भाई भाई


गरमी आती है जाती है,मगर रुकती नहीं

ख़ासियत गर्मी की यारो,अलग ही है दोस्तो


आज तुम हो कल वे,आएगें इसी बाजार में

मगर जनता क्यों पिसे,आपके इस प्यार में


मुख़ालिफ़त तो ठीक है,मगर सच छुपता नहीं

शाम ढ़लते साथ में,होती है क्यों क्या गुफ़्तगू


दलबदल के माफिया,गुंडे जो कुर्सी पा गए

क्या नज़र कमज़ोर है,आ नहीं पाए नज़र


तोता पिंजरे में फँसा है,टांग रक्खा खूँट पै

अपने मन से छोड़ते हैं,रात दिन बरसात में


काजल की कोठरी है,काले काले दाग़ हैं

ये सियासत है गजब,कौन यहाँ बेदाग़ हैं


सियासत है गजब की,आपको मालूम है

कौन कब अपना बने,कौन कब उनका बने


अपना अपना काम हो,और अपना नाम हो

फर्क इनको है नहीं कुछ,कौन यहाँ नीलाम हो


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

जनकवि

स्वतन्त्र लेखक

०१.०३.२०२३ ०५.१५पूर्वाह्न(२७६)



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