अशआर
डर डर के चलोगे,ग़र राह इस तरह
फिर घर से निकलने की,ज़रूरत क्या है ?
ख़िलाफ़ कोई नहीं,होता ज़माने में
क़दम बढ़ते हैं,तो धूल उड़ना लाज़िमी है !
चुभते हैं नश्तर की,तरह लफ्ज़ उन्हें
सच बोलना कहीं,क़सूर तो नहीं होता
नजरअंदाज कर दो,उन्हें जो आदमी नहीं
नजर रखने में समय,बरबाद मत करना
चलते रहो अपनी,डगर यूँ हीं मेरे दिल
मिलती नहीं मंजिल,आसान राह में
कदम कदम पर,मिलते हैं कुछ निशाँ
शुक्र है अभी,चलने का शौक जिंदा है
यहॉ पर सब,मुसाफ़िर हैं यकीनन
कुछ वक्त ठहरना,कोई ठहरना नहीं
लिखो कुछ अलग,अपने भी वास्ते
दूर चले जाने पर,कोई याद करे
दर्द से इश्क़ करना,सीख लो ऐ दिल
यही तो है जो दिल के,क़रीब रहता है
सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२३.०३.२०२३ १२.०३अपराह्न (२८५)