अशआर-धूप थी भारी सुनो !

 

अशआर

धूप थी भारी सुनो !


आजकल वे मौज में,जो देखते सुनते नहीं

बोलना भी भूल बैठे,आजकल वे मौज में


झूले जैसे झूलते,देखे गए जो बोलते हैं !

और वे खुशहाल हैं,जो रात को दिन बोलते


धूप थी भारी सुनो,लेकिन वे बोले रात है

संतरी संग मंतरी सब,बोल बैठे रात है जी रात है !


इस तरह की जी हजूरी का,चलन जो चल पड़ा

है नहीं कोई शिक़ायत,बात है क्या बात है !


कागजों के खेल में,माहिर खिलाड़ी बहुत हैं

लीपापोती रोज करते,खुला सीना ठोंक कर


है उन्हें मालूम बोलेगा,तो सुनना है नहीं

कागजों के खेल में,उलझा के रक्खो आदमी


है अलग माहौल सा,लोगों के मंसूबे अलग

झूठ सच में फर्क भी,महसूस होता है नहीं


दो तरह के लोग हैं,और दो तरह की जिंदगी

सच छुपाते चल रहे हैं,क्या पता क्या बात है


झूठ जितना बोल पाओ,हाथ मक्खन लीजिए

देखकर सज़दा करो,जी हजूरी कीजिए


कुर्सियों की ताकतें,बस चंद दिन की बात है

फिर वही कोहरा घना,मुँह चिढ़ाती रात है


कुर्सियों के ज़ोर पर,करते रहे गुस्ताखियाँ

एक दिन कुर्सी गयी,चाहते फिर माफियाँ


सामने जो कर रहे थे,बात मीठी शहद सी

पीठ पीछे जहर की,फ़सलें उगाते मिल गए


बढ़ रहे हैं दाम यहाँ,हर रोज रोटी दाल के

वे बड़े ही शान से,कहते रहे सब ठीक है


ये सियासी लोग बिन,पैंदी के लोटे की तरह

कब कहाँ ये लुढक़ जाएं,समझ से ये दूर है


कागजों में फाइलों में,इश्तहारों में भी जय

किंतु ये जय कागजी है,देख पाओ देख लो


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२६.०३.२०२३ ०९.४८पूर्वाह्न(२८७)




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