कविता-बात सुनो तो बोलूँ


कविता

बात सुनो तो बोलूँ

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मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ

अंतर्व्यथा प्रेम और उलझन।।

परत परत फिर फिर मैं खोलूँ

मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ।।


कटुता बढ़ी चढ़ी छाती पै आती

मन के अंदर भेद बढ़ाती जाती।।

फिर कैसे मैं नींद चैन की सो लूँ

मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ।।


कभी निकट आकर बतराते

अपनेपन का भाव जगाने आते।।

मन कोरे कागज सा लेके डो लूँ

मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ।।


अंतर् का तम बढ़ा और बढ़ बैठा

अहंकार ले चढ़ा और लड़ बैठा।।

अपने मन के तेरे मन के दर्द टटोलूँ

मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ।।


अपनों में जब बड़ीं दरारें भारी

बात बात पै खिंचीं कटार कटारी।।

मैं दोषमुक्त या दोषारोपित हो लूँ

मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ।।


बने बनाये नियम टूटते देखे

कोरे मद में स्वजन छूटते देखे।।

ह्रदय द्रवित लेकर मैं डो लूँ

मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ।।


कितने पट खोलूँ किससे बोलूँ

किससे कहूँ सुनाऊँ किसको।।

सिर पर गठरी कब तक ढो लूँ

मेरे मन की बात सुनो तो बोलूँ।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

३०.०४.२०२३ १२.३०अपराह्न(३००)






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