गिरता आदमी !
आदमी के गिरने के लिए,
नियम क़ायदे तय नहीं होते।
सिद्धांत भी होते नहीं,
वह स्वतंत्र है गिरने के लिए।
कोई बंधन भी नहीं होता,
रोक टोक प्रबंधन नहीं होता।
उसकी इच्छा उसका मन,
वह जितना गिरना चाहे गिरे !
वह अपनी इच्छा से गिर सकता है,
यहाँ उसे किसी से पूछना तक नहीं।
कि मेरे गिरने का पैमाना क्या तय है,
कोई बाध्यता सीमा रेखा भी नहीं।
कभी कभी गट्टा सा आदमी भी,
काफी दूरी लंबी दूरी तक गिरता है।
उसके गिरने की धमक कंपन,
कानों को दिलों को फाड़ जाती है।
सीधे गिरो उल्टे गिरो खुलके गिरो,
तुम्हारी इच्छा छुपके गिरो चुपके गिरो।
यह प्राप्त स्वातंत्र्य है मनुष्य के हाथ,
वैसे गिरना कोई साधारण बात नहीं होती।
कभी कभी राजा भी गिरता है,
और उसका पहरेदार चौकीदार भी।
कुछ मुलाज़िम भी कुछ हाक़िम भी,
गिरते हैं दौलत के लिए शोहरत के लिए।
इसके लिए चाहिए असाधारण योग्यता,
अमानुषिक आचरण तलवे चाटने की कला।
लेकिन हर कोई मनुष्य गिर नहीं सकता,
क्योंकि गिरना सामान्य नहीं असाधारण है।
और जो एकबार गिरा उसका क्या,
गिरना उसे सद्गुण लगने लगता है।
और गिरने की कला अकूत संपदा,
लेकिन गिरना मनुष्य को शोभा नहीं देता।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१४.०५.२०२३ ०३.५८अपराह्न(३०६)