कविता-श्रमिक महान

 

कविता

श्रमिक महान


दिनकर की गर्मी के मद को,

पुनः तोड़ने को वह आया।

भीषणतम तपती दुपहर में,

भुजबल शौर्य दिखाने आया।


तपती धरती तपता दिनकर

संयम धैर्य कर्तव्य निष्ठ नर।

साहस निज क्षमता के बल पर,

नहीं मानता किंचित हार।


सूर्यदेव से ठनी श्रमिक की,

मद भंजन करके मानेगा।

मत समझे कमजोर उसे रवि,

वह पथ पर बढ़के मानेगा।


इतना ताप कोप करता तू,

फिर भी नहीं तनिक डरता वह।

धूप रूपसी प्रिया सरीखी जान,

संग संग चलता श्रमिक महान।


टीक दुपहरी बृक्ष जल रहे,

पादप माँगे पल पल छाँव।

पंक्षी बृक्ष की ओट ढ़ूढ़ते,

मानव माँगे तिल तिल ठाँव।


लेकिन किंतु परन्तु कुछ नहीं,

रुके झुके ना श्रमिक महान।

तू अपनी तूणीर देखि रवि,

बचे खुचे अब कितने बान।


नहीं रुकेगा नहीं झुकेगा,

कापुरुषों की भाँति सुजान।

जो अपना पुरूषत्व बेंच दे,

नहीं नहीं,यह श्रमिक महान।


भिक्षादान नहीं वह लेता,

स्वर्णरूप मिट्टी को देता।

भुजदंडों के बल से संयुत,

चलता अपना सीना तान।


दिनकर तपे तपे धरती संग,

तनिक न ले किंचित विश्राम।

इसका रग रग पूरित श्रम से,

चलता रहता नित गतिमान।


देखो वह नर श्रमिक महान…

देखो वह नर श्रमिक महान…


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२१.०५.२०२३ ०२.३१अपराह्न (३०८)





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