अशआर-ख़ुद ही ख़ुद के पास

 

अशआर

ख़ुद ही ख़ुद के पास


बातें कभी कभी,ख़ुद से किया करें

ख़ुद से हों रूबरू ख़ुद से हो गुफ़्तगू


आईने के सामने ख़ुद से मुख़ातिब हों

पर्दा पड़ा हट जाएगा आईने के सामने


ख़ुद से करिए बात आईने के सामने

नज़र पर झुकने न पाए आईने के सामने


न ग़म का मलाल,न खुशियों का ख़ुमार

ये चंद दिन रहती हैं,उम्र भर बिल्कुल नहीं


न ख़फ़ा रहो ख़ुद से न बेवफ़ा रहो ख़ुद से

जिंदगी की राह में मस्त हो चलते रहो


लफ़्जों का खेल है कहना सँभालकर

बोलना है कब क्या और किसके सामने


गिरकर उठ सकता है यक़ीनन आदमी

नज़र से जो गिर गया शायद उठे या ना उठे


ख़िलाफ़ वे भी नहीं साथ पूरी तरह ये भी नहीं

वक़्त है साहेब सब खेल वक़्त का


उम्मीद करो और फिर लंबा इंजतार करो

इंतजार थकाता है बहुत लंबी दूर तक


जाना आना पाना खोना सब शेड्यूल है

ज़िंदगी और ज़िंदगी की चाल का


हम मुसाफ़िर हैं इससे ज्यादा कुछ नहीं

राह में चलते रहो मिले मंज़िल ना मिले


अल्फ़ाज़ बोलना लेकिन सधी ज़ुबान

बोले गए लफ़्ज़ वापिस नहीं होते


बिना सोचे बिना जाने बोलना ठीक नहीं

सीने को चीर जाते हैं लफ़्जों के तीर भी 


नज़दीक होकर भी जो नज़दीक नहीं

शायद शोहरत नई नई है दौलत नई नई


हमेशा वे ही ग़लत नहीं

कभी कभी हम भी कम गलत नहीं


जब मन उदास होता है यूँ हीं कभी कभी

बैठ जाता हूँ धीरे से ख़ुद ही खुद के पास


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

२९.०५.२०२३ ०७.०५ पूर्वाह्न (३११)


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