कविता
मन पूछता है !!
कभी कभी मन पूछता है,
स्वयं से स्वतःकुछ प्रश्न।
कि तुम खुश क्यों नहीं हो ?
दिखाबे से दूर क्यों नहीं हो ?
क्यों छुपाकर रखते हो उर में,
अनेकों दर्द वेदनाएं भर कर।
क्यों रहते हो स्वयं से अप्रसन्न,
क्यों रहते हो इतने खिन्न खिन्न ?
इतनी भूख तो नही है तुम्हारी,
फिर इतनी भूख क्यों बढ़ा ली।
इस तरह यंत्रवत सतत भागमभाग,
न प्रसन्न मुख न सुकून न अनुराग।
भाग दौड़ में तुम स्वयं से दूर,
निरन्तर होते जाते हो मेरे मित्र।
कभी चाँद की चाँदनी में बैठो,
कभी कभी तट नदियों के बैठो।
असली आनन्द प्रकृति के साथ है,
वन बाग पोखर मिट्टी के साथ है।
लेकिन तुम इन्हें स्वयं उजाड़ रहे हो,
निरन्तर लगातार रोज आँख बंद कर।
अंधी दौड़ तुम्हारे लिए ठीक नही,
तुम आदमी थे वही बने रहते मित्र।
कम खाते लेकिम प्रसन्न होकर,
क्या जरूरत थी भूख बढ़ाने की।
अब तुम्हारे हिस्से शेष नहीं आनन्द,
आपसी प्रेम निश्छलता परमानन्द।
अब घुटते रहो अपनी भूख के साथ,
भूख पचा जाती हैं सबकुछ रातोंरात।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०४.०५.२०२३ १०.२८अपराह्न(३०२)