महसूस करो
नक़ाब लगे चेहरे,और अंधी आँखें
इनसे उम्मीद करोगे,तो क्या पाओगे
ईमान इज्ज़त भी,बिकाऊ हो चली है
बेंचने का सिलसिला,आजकल जोरों पेै है
भेड़िए खाल बदल के,घूमते पाए गए
हुकूमती ऐलान हुआ,बेटियाँ बचाईं जाएं
आबरू जब किसी की,बेआबरू होती है
महसूस करो,सिसकियों की जुबान होती है
वैसे तो जिंदगी की,कोई तय उम्र नहीं
फिर भी जरूरी नहीं,कि हम सुधर जाएं
जिन्हें दिखता नहीं,वे तो अंधे हैं मेरे रब
किंतु जो आँखों के हैं,वे भी अंधे हो चले हैं
ऐलान हुआ मुनादी हुई,बेटियाँ बचाईं जाएं
मगर किस वक्त,किस किससे बचाईं जाएं
उठ सकता है बेशक,गिरा इंसान दोस्तो
ईमान से जो गिर गया,गिरता चला गया
इसकी कहूँ उसकी कहुँ या ना कहूँ
दौलत की भूख ऐसी,गिरते ही जा रहे हैं
ये क्या ! ईमान पाला बदलता दिखा
हवा के नक्शेकदम चलता दिखा
फाइल पर फाइल,फाइलों का शोरगुल
आदमी दबता गया,फाइलों के ढेर में
आदमी जब जब बड़ा,और बड़ा होता है
सच मानिए गूँगा बहरा,अंधा उतना बड़ा होता है
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०८.०५.२०२३ ११.१८पूर्वाह्न(३०४)