अशआर-तराने जिंदगी के

 

अशआर

तराने जिंदगी के


जमीन की कोख अब बचे न बचे

आदमी खुदगर्ज़ इक मर्ज़ बन चला है!


हवा को कैदखाने में सड़ाने के लिए

बंद बक्सों के सहारे आदमी बस हो चला है


मौसम कभी यूँ ही ख़फ़ा नहीं होता

वो बड़ा सब्र-दार है यूँ हीं बेवफ़ा नहीं होता


चिंगारियां छूकर मेरा छप्पर चली गयीं

आऊंगी फिर देखना कह कर चली गयीं


शहर तो शहर अब गांव भी छा गए

हवा पानी पेड़ कुएं पोखर समा गए


नकली हँसी नकली हवा नकली सी शान

उस रब को कोसना मुनासिब नहीं होगा


भागती दौड़ती बोझिल बेजुबां सी जिंदगी

मौसम मेहरबां हर वक़्त एक सा नही होता


उनसे ख़फ़ा इनसे ख़फ़ा ख़फ़ा क्यों हो

ऐ दोस्त ये दुनियां है ख़ुदसे बेवफा क्यों हो


शिकायतों के पुलन्दे और पुलन्दे में लोग

रिश्ते तलाशिए बस खो रहे हैं लोग


हार जीत इज्जत तौहीन सब क्या है

वक़्त के हिसाब से ये बस हवा हवा है


डरोगे तो रुक जाएंगे कदम राह में

ठोकरों से सीखकर चलना सही होगा


किसलिए यूँ नाराज़ ख़फ़ा किससे

वक़्त है साहेब गुज़र ही जाना है


मिलते नहीं यूँ हीं तोहफे जहान में

चराग़ जलाने पड़ते हैं अंधेरे मकान में


आदत बनाइये कुछ सहन कर सकें

ख़ुद के लिए ख़ुद से पहचान कर सकें


दोस्त भी हैं दुश्मन भी है दुनियां जहान में

सबके सब किरदार हैं उस रब की शान में


हवाएं गुनगुनाती हैं तराने जिंदगी के

नासमझ आदमी कम ही समझ पाता है


शिकायत करते करते नुकसान करोगे

कभी तारीफ़ किया करो अहसान करोगे


सबक़ उस्ताद किताबें और अपनापन

बड़ा अपना सा लगता था उस दौर का बचपन


कबड्डी गिल्ली डंडा फटे लत्तों से बनी गेंद

फिर याद आगया वह दौर वह बचपन


पतंग उड़ाने का शौक और जेठ की धूप

क्या दोस्ती थी उस धूप से अपनी भी दोस्तो


फिलिप्स का रेडियो फरमाइसी गाने

विरासत क्या टिकेगी इन सबके सामने


एंटीना डीडी न्यूज डीडी मेट्रो और दिल

तब दिल था खुशी थी वह अब सब कहाँ


प्यार था ऐतबार था रिश्तों में मिठास थी

वह दौर और था वह बात ख़ास थी


यादों के झुरमुटों में फँसता चला गया

वह दौर वह बचपन सब याद आ गया


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२५.०६.२०२३ ०९.२९अपराह्न (३२०)





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