कविता-गठजोड़!

 

कविता

गठजोड़ !


गठबंधन बंधन गठजोड़,

अजब सियासी खेला।

अड़तीस छब्बीस हवा बनाते, 

गजब मियादी मेला।

एक ओर इनडिआ नाम रखि,

आए हैं पुरज़ोर।

दूजी ओर सियासी पिच पर,

करत गर्जना घोर।

 

एक ही थाली में सज आए,

कद्दू आलू नीम करेला।

कभी नहीं संयुक्त हुए जो,

उनका देखो देखो मेला।

जनता तो बस मगन अन्न में,

मिले किलो दो चार।

यही हाल अंदर खानों को कर,

ना दे बिल्कुल बेकार।


महंगाई सुरसा मुख जैसी बढ़ती,

मार धकेला।

इनको बस गद्दी की जल्दी मिले,

रोकड़ा धेला।

टूटन फूटन लूटन जूठन है अद्भुत,

उपयोग।

राजनीति से नीति नदारद अजब,

गजब संयोग।


सचमुच यहाँ नहीं कुछ पक्का,

नहीं गुरू ना चेला।

कौन गोद में कब आ बैठे कर बैठे,

कब कौन झमेला।

नियम नीति ना धनी बात के,

सब कुर्सी का खेल।

आज साथ में बैठे भैया जो थे,

कल पूरे बेमेल।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

१९.०७.२०२३ १२.२५अपराह्न (३२५)



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