बंदूकें किसलिए न गरजीं !!
नारी की सारी जब खींची,
युद्ध हुआ भीषण गम्भीर।
रूधिर पनारे बहे मही पर,
कालरूप गरजी शमशीर।
लेकिन दृश्य आज का देखो,
सोए रहे ना जागे वीर।
दिवस साठ सत्तर जब बीते,
गरजे महा धुरंधर धीर!
राजनीति से नीति नदारद,
सिंहासन की बढ़ती भूख।
सो गई वर्दी डर गई वर्दी,
छुपी डरी रह गयी बंदूक!
दोषी वे सब दोषी हम सब,
दोषी जड़ सम हम इंसान!
वस्त्र उतार उघार घुमाते,
महा दनुज करते अपमान।
रानी सोयी राजा सोया,
शासन संग प्रशासन सोया।
खाकी सोयी खादी सोयी,
सोया जो था चौकीदार।
कलम क्रोध से हुई अग्निसम,
देखि दानवीय रूप हजार।
दैत्य झुंड में फिरें बिना भय,
मची हर तरफ चीख पुकार।
दशा दुर्दशा देखो राजन,
कितने बाण बचे तूणीर,
खाकी की अभिरक्षा में से,
कैसे खींच ले गयी भीर।
बंदूकें किसलिए न गरजीं,
बोला क्यों नहीं चौकीदार।
तुमको बार बार हम सबका,
कोटि सहस्त्र वार धिक्कार !!
कोटि सहस्त्र वार धिक्कार !!
कोटि सहस्त्र वार धिक्कार !!
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
२२.०७.२०२३ ११.१८पूर्वाह्म (३२७)