कविता-ठूँठ !!

 

कविता

ठूँठ !!


ठूँठ,जी हां ठूँठ ! 

विशालकाय बृक्ष की, 

जो कभी हरा भरा हुआ करता था,

अत्यधिक उपयोगी सर्व स्वीकार्य।


थके हारे मुसाफ़िर बैठते थे छांव में,

फल फूल पात बयार सब कुछ था। 

लेकिन समय तो ठहरा समय !  

समान रहने की बंदिश से कोसों दूर।


बृक्ष को गर्व था अपनी ऊंचाई पर,

भीमकाय आकार पर भार पर परछाईं पर।

उसे अत्यधिक मद हुआ करता था,

जब वह आकाश छुआ करता था।


लेकिन उसकी एक गलत प्रवृत्ति,

जो उसे खा गई पचा गई सुखा गयी।

उसने नहीं चाहा कि कोई पनपे बढ़े,

उसके साये में,दूब घास पौधे फसल आदि।


जब वह सूखा भार आकार सब बेकार,

उस पर अब शुक कोकिल नहीं बैठते।

राहगीरों ने उसे अश्पृश्य मान लिया,

अभिशापित भूतहा मान त्याग दिया।


अब ठूँठ पर चील गिद्ध कौए बैठते हैं, 

और बैठते हैं सोच से मेल खाते पंछी,

कौए आदि आदि,अब उसकी ठूँठ पर।

उस विशालकाय बृक्ष की ठूँठ पर !!


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक 

०६.०८.२०२३ १२.२५अपराह्न (३३०)








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