कविता-पिंजरा !!

कविता

✍️ पिंजरा !!✍️


फँसे हुए चूहे को देखा पिंजरे में,

लालच के चक्कर में देखा पिंजरे में।

घुटन और लाचारी देखी चेहरे पर,

बेबस हारा हारा देखा पिंजरे में।।


कोशिश कई सैकड़ों कर ली चूहे ने,

उछल कूद हज्जारों कर ली चूहे ने।

लेकिन नहीं सफलता उसको मिली नेंक,

पराधीनता स्वयं स्वीकारी चूहे ने।।


चूहा बिना बिचारे आया झट पट आया,

मिला मुफ्त का कौर कैद हो फिर पछताया।

नहीं क्षणिक सोचा समझा तब मूसक रे !मन,

कहीं चाल तो नहीं जाल तो नहीं बिछाया।।


मनुज हमें भी तनिक सोचना होगा रे ! मन,

मुफ्त मुफ्त का शोर त्यागना होगा रे ! मन।

मूसक बुद्धि विवेक बेंचकर आया शायद !

मनुज है बुद्धीमान ? जांचना होगा रे ! मन।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

०७.०८.२०२३ ११.५३पूर्वाह्न (३३१)



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