✍️मैं नहीं तू गलत !✍️
व्यंग्य-१
यक़ीन मानिए डर उन्हें भी लगता है,
जिनसे तुम्हें भी लगता है !
हाथ पांव बंधे पड़े हैं सच मानो
उन्हें इनसे डर लगता है,
इन्हें उनसे डर लगता है !!
व्यंग्य-२
दरबार है दरबारी भी हैं !
राजाधिराज भी हैं तरकस में शब्द भी हैं !
सत्य घायल है आँखे संक्रमन से इश्क कर बैठी हैं।
सत्य मौन है कराह रहा है हांफ रहा है।
दरबार का दृश्य देखकर..हाल देखकर
दरबार में हा हा हा……ठहाके ही ठहाके !
तू गलत मैं सहीं,मैं नहीं तू गलत !....
अरे ! दददू गलती हमारी ही है,हम हीं पूरी
तरह गलत हैं वोटर सोचता है सिर पीटता है !!
सबके सब एक से एक खिलाड़ी हैं !
हकीकत में कौन गलत कौन नहीं ??
सत्य स्तब्ध निःशब्द अधीर…..!! चुप…
व्यंग्य-३
तेरा दंगा मेरा दंगा छोटा दंगा मोटा दंगा?
दंगे का तुलनात्मक अध्ययन हो रहा है
बात कोई पते की नहीं करता सियासत
हो रही है,पाले बदल बदल कर गेंदें फेंकी जा
रही हैं। घाव को लेकर बहस हो रही है लेकिन मरहम नहीं,मर हम रहे हैं।
और गिनाए जा रहें हैं लाशों के हिसाब,
मय तारीख मय चित्र अपने अपने बचाव में ! कार्यकाल के हिसाब से...
शर्म करो चुल्लू भर पानी में जा गिरो,
किससे कहें इनसे या उनसे ??
कल वे उधर ही थे जो आज इधर हैं !
चलनी के छेद कौन गिने कौन नहीं !
फटी चादर इनकी भी खूब है उनकी भी !
अपनी फटी चादर मत छुपाओ…
उड़न पुच्ची………से मत दबाओ !!
दिखाओ कुछ कर दिखाओ...
व्यंग्य-४
हम नहीं बोलेंगे कतई नहीं
हरगिज भी नहीं…अरे ! भैया हम
इनके हिसाब से बोलेंगे,नही नहीं
बिल्कुल नही…नो नो नो ना ना ना।
ऐसा लगता है जैसे बरात से पहले फूफा को
फूफी ने फूँकनी दिखा कर डरा दिया हो,उस पर मत बोलना,बोलना ही पड़े तो अगल बगल झांक
के बोलना, लोग हँसते हैं तुम पर मुझे मालूम पड़ा है "सच्ची में" पड़ोसिन कह रही थी !इसलिए तुम सब अपने हिसाब से बोलना इधर की उधर की इसके घर की रात की दोपहर की बस इतना ही
तो करना है,मक्खी नहीं बैठने देनी है-
फूफा खुश हो जाते हैं,
ए सुन ! सुन तो..सच की कसम !बिल्कुल हिसाब
से बोलेंगे....हम सच ही बोलेंगे तुम सुनना फिर बताना..वे जो पूछेगें उस पर तो हरगिज नहीं
अरे ! भई हम कौन हैं कौन ?
पता नहीं…क्या सच में पता नहीं !!
हम "हम" हैं छप्पन वाले समझे….!! का
कौनसे ??
व्यंग्य-५
सड़क पर आदमी गिरा पड़ा है,
लोग निकल रहे हैं लेकिन किसी को कोई परवाह नहीं,इसी बीच एक कृशकाय फटे चीथड़े पहने एक आदमी आता है,उसके हाथ में लोटा उसमें पानी, फटाक दीसें छिड़कता है सड़क पर बेसुध आदमी के मुँह पर,और घसीट कर सड़क किनारे पेड़ के नीचे ले आता है,आदमी को जब होश आता है तो वह पूछता है,ए भैया मैं कौन हूँ और आप कौन हो, भिखारी कहता है अरे ! धीरे बोलो भाई धीरे,तुम मतदाता हो और मैं मुफ्त की रेबड़ी का घरवाला अर्थात हसबेंड बेंड बज गया मेरा तो,मेरी दिशा भी नहीं और दशा तुम देख ही रहे हो,क्या तुम रैली में आये थे सुनते सुनते आदमी फिर बेसुध हो जाता है। सामने किसी बड़बोले नेता की रैली चल रही होती है भीड़ पर भीड़ चढ़ी जा रही है,
जिंदाबाद जिंदाबाद…सहसा कोई बोल पड़ता है। इसे दुस्साहस कहें या साहस ! झूठाबाद….झूठाबाद…झूठाबाद !!
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
११.०८.२३ ०६.००अपराह्न (३३३)