कविता-।। श्रमबिंदु ।।

 
🙏🏼कविता🙏🏼

।। श्रमबिंदु ।।


श्रमबिंदु कहें उसकी क्षमता,

नरधीर अथक परिश्रम करता।।

लथ-पथ प्रति अंग अंग उसका

लेकिन वह नहीं तनिक रुकता,

श्रमबिंदु कहें उसकी क्षमता।।


गरमी का तोड़ा अहंकार,

ठिठुरन करती देखी पुकार।।

बर्षा आती नहला जाती

श्रम-वीर नहीं रुकता झुकता,

श्रमबिंदु कहें उसकी क्षमता।।


तपती दुपहर या शीत लहर,

अंधड़ आंधी या शांत पहर।।

अपना वह काम किये जाता

धरती जलती दिनकर जलता,

श्रमबिंदु कहें उसकी क्षमता।।


वह महामनुज वह महाधीर,

परिश्रमी महा अति धीरवीर।।

संयम साहस का पुंज स्वयं

किंचित भी मार्ग नहीं तजता,

श्रमबिंदु कहें उसकी क्षमता।।


हमने कितना इनको जाना,

जाना जाना क्या पहचाना।।

इक बार सोच रे !शासक फिर

क्यों नहीं ठोस कुछ डग भरता,

श्रमबिंदु कहें उसकी क्षमता।।


मत धैर्य परख मत देर लगा,

वह जगा हुआ है पूर्ण जगा।।

उसने न तनिक झुकना सीखा

वह श्रेष्ठ विशेष मही जग का,

श्रमबिंदु कहें उसकी क्षमता।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

१७.०८.२०२३ ०८.०५ पूर्वाह्न (३३६)

✍️जय मजदूर✍️


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