व्यंग्य-श्रीमती मिलावट देवी !

 

।। व्यंग्य ।।

श्रीमती मिलावट देवी !


मेरे पास श्रीमती मिलावट देवी आयीं,

देखते ही नैन मिला मिला मुस्करायीं।

मैंने पूछा मेडम बड़ी चमक मार रही हो,

क्या डायरेक्ट सौंदर्य केंद्र से पधार रही हो।


मिलावट देवी बोलीं और बोलती चली गयीं,

घूँघट के पट लट झटपट खोलती चली गयीं।

बोलीं सुनिए मेरे कविवर मित्र प्यारे,

लिखना प्रिय तुम कुछ गुणगान हमारे।


उन्होंने बतलाए अपने कुछ मिलने के ठौर,

करना करना थोड़ा थोड़ा आओ मिलकर गौर।

मैं हल्दी में दूध दही में चावल में चीनी में,

पूजा की सामग्री में भी सिन्नी की पिन्नी में।


मैं दवा में मिली हूँ दारू में मिली हूँ,

मैं घर बनाने वाली बारू में मिली हूँ।

मिठाईयां मेरा सानिध्य पाकर मस्त हैं,

महकमे मुलाज़िम जेब भरने में व्यस्त हैं।


मेरा यहाँ वहाँ हर तरफ वास मान लो,

अब तो रिश्तों में भी निवास मान लो।

समाज में दूध शक्कर की भली भाँति,

रिश्तों में नातों में वादों में भाँति भाँति।


मुझे अक़्सर त्यौहारों के वक्त तलाशते हैं,

मुलाज़िम मेरे सहारे बड़े लंबे हाथ मारते हैं।

मजा आता है मुझे कि जाँच में भी मैं हूँ,

ग़र मिल भी गयी तो नई जाँच में भी मैं हूँ।


समझे कविवर मेरे कितने ठौर ठिकाने,

कितने मेरे संगी साथी कितना कुछ पहचाने।

घटतौली कालाबाजारी हैं मेरे दो हाथ,

हमें मिला है कुछ लोगों का पूरा पूरा साथ।


यही प्रभुत्व हमारा अब कायम रहना है,

है लालच में चूर आदमी क्या कहना है।

ख़ुद ही ख़ुद का गला काटने लगा आदमी,

मेरा नहीं कसूर चरण आ लगा आदमी।


कोई खुलके कोई छुपके मुझसे मिलने आता,

होकर मेरे दर नतमस्तक आकर चरण दबाता।।

लालचवश अंधे मानव ने खुद का गला दबाया,

हे कविवर मैनें आहत हो बस कुछ तुम्हें सुनाया


सर्वाधिकार सुरक्षित 

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

व्यंग्यकार

२९.०८.२०२३ ०८.२८पूर्वाह्न (३४२)








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