कलियुग में लंकापति अवधपति संवाद पढ़ें
।। कविता ।।
मेरा वक्ष स्थल वही भेदे
बाण वही मारे मम उर में,
जिसमें रामत्व समाया हो।।
जो हो सच्चा मन वाणी से,
अधम अन्न नहीं खाया हो।।
जिसकी परनारि पै दृष्टि न हो,
जो स्वयं पति धर्म निभाया हो।।
जो हो सम दरशी रघुवर सा,
जिसमें सम भाव समाया हो।।
जो भ्रात प्रेम से पूरित हो,
पितु मात गुरू का रखे मान।।
जो धर्म नीति को जानता हो,
जो धर्म कर्म का रखे ज्ञान।।
मुझे राम चन्द्र से वैर न था,
मैं बस लीला का पात्र बना।।
यह सब रघुवर इच्छा से था,
मैं पात्र तो कभी कुपात्र बना।।
लीला का मंचन खूब करो,
ना मुझे तनिक आपत्ती है।।
तुम मुझे जलाओ या काटो,
मुझको शिव ने दी शक्ती है।।
बस तीर चलाये वह मुझ पर,
जिसमें हो कुछ रघुवर जैसा।।
सम दिखें जिसे सब धर्म पंथ,
जो हो पवित्र चंदन जैसा।।
जो लूट रहा हो खुलेआम,
व्यभिचारी चरित खो गया हो।।
वह दूर रहे वह परे हटे,
जो स्वयं पाशविक हो गया हो।।
हे राम तुम्हारी धरती पर,
मैं देख रहा हूँ क्या क्या अब।।
नृप सचिव धर्म पथ भूल रहे,
यहाँ देख रहा हरि उलटा सब।।
यहाँ धर्म कर्म उद्योग बना,
पथभृष्ट यहाँ पथ पथ पर हैं।।
जो कभी हमारे थे अनुचर,
वही आज तुम्हारे रथ पर हैं।।
यहाँ धर्म जाति का खेल बड़ा,
हे राम तुम्हें मिल छलते हैं।।
पूजा अस्थल और घाटों पर,
बहरूपिए भर भर मिलते हैं।।
और नाथ ज्यादा क्या बोलूँ,
हे राम और क्या क्या खोलूँ।।
जिनमें न तनिक रामत्व शेष,
वे भी फिरते बन कर विशेष।।
मेरे प्रतिरूप हैं घर घर में,
कैसे किस किसको मारोगे।।
मैं तो निज धर्म निभाया था,
इनके सम्मुख तुम हारोगे।।
हे राम हमारी राम राम,
मैं लंकापति त्रैलोक विजयी।।
मैं नहीं मरूँगा अवधनाथ,
ब्रह्मांड विजयी मैं कालजयी।।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
२४.१०.२०२३ ०२.०५अपराह्न (३५९)
(विजयदशमी दशहरा पर विशेष रचना)