कविता-रावण की हुंकार

।। कविता ।।

रावण की हुंकार


दशकंधर आकर चिल्लाया,

है कोई मुझे मारने वाला।।

बीस भुजाएं सहस हो गयीं,

है कोई इन्हें झारने वाला।।


रूप बदल प्रविष्टि हुआ मैं,

कैसे मुझको जान सकोगे।। 

यहाँ वहाँ सर्वत्र व्याप्त मैं,

क्यों कैसे पहचान सकोगे।।


रावण फिर बोला हुंकार,

आओ मुझे मिटाकर देखो।।

भृष्ट तंत्र और लूट तंत्र से,

मुझको परे हटाकर देखो।।


मिट जाएंगे हट जाएंगे,

मुझको परे हटाने वाले।।

राजनीति में मेरा कुनबा,

हो गए परे मिटाने वाले।।


थे मेरे अनुचर अनुयायी,

भेष बदल आ आ बैठे हैं।।

नयन उघारो देखो कुछ तो,

मेरे प्रिय यहाँ वहाँ बैठे हैं।।


और सुनो मैं तुम्हें सुनाऊँ,

मदिरालय में पुरजन मेंरे।।

ध्यूत सभा रस रंग भोग में,

सबके सब हैं परिजन मेरे।।


कितनों को तुम मार सकोगे,

है कलिकाल न त्रेता समझो।।

तब मर्यादा स्वाभिमान था,

मत अब कुछ तब जैसा समझो।।

 

नकली खाना नकली बाना,

क्या क्या तुम्हें सत्य बतलाऊँ।।

नित नित होता मैं विस्तारित,

क्यों कर नहीं सुनो इठलाऊँ।।


तुमको ये मिल छल डालेंगे,

लगे त्रिपुंड वसन साधू सम।।

कालनेमि प्रसन्न चित्त अति,

रामभक्त मिलते स्वादू सम।।


कुंभकरण सुखमय सोता है,

कोई मरे गिरे क्या काम।।

लुटे पिटे या हरण शील हो,

उसको नींद मिले अविराम।।


मेघनाद गरजता मेघ सम,

हाहाकार मचा जाता है।।

सुनो सुनो मैं हूँ सजीव ही,

कितना तुम्हें दृश्य आता है।।


रोज रोज मैं बढ़ता जाता,

मुझको तुम कब तक मारोगे।।

निश्चित है अब हार तुम्हारी,

तुम अब स्वयं ख़ुद से हारोगे।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

२५.१०.२०२३ ०८.१८पूर्वाह्न(३६०)


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