।। कविता ।।
खुद मुस्कराना भूल गया
जीवन के झंझावातों में,
खुद ही खुद को भूल गया।।
पथ पर चलता रहा निरंतर,
खुद मुस्कराना भूल गया।।
अपनी थीं आशाएं कब कुछ,
इनके उनके लिए जिया।।
जीवन के पथ पर मैंने प्रिय,
विष को कितनी बार पिया।।
किंतु नहीं मैं रुका तनिक भी,
देख कुचक्र विधानों के।।
किंचित विचलित ना कर पाए,
बाण तनिक भी तानों के।।
आँधी हो तपती दोपहर हो,
वर्षा ऋतु या शीत लहर।।
कर्म वीर नित रहा कर्म रत,
रुका झुका ना देख पहर।।
यदाकदा मन ने झकझोरा,
उजले स्वप्न कुरूप दिखे।।
कितना कितना तुम्हें सुनाऊँ,
बदले रूप स्वरूप दिखे।।
मैं तो ठहरा इक पथगामी,
पथ की बातें सुनी सभी।।
कितनी बार घुमाया परखा,
प्रतिउत्तर ना दिया कभी।।
एक बार नहीं कई बार प्रिय,
उसने दो दो मार्ग दिखाए।।
कभी इधर से कभी उधर से,
उसने बहुत बार उलझाए।।
चलता रहा निरंतर पथ पर,
जैसी उसकी इच्छा थी।।
मेरा क्या था सब उसका था,
ये बस एक परीक्षा थी।।
जीवन पथ की चाल निराली,
उलझा कर रख देती है।।
लगता है अब शिखर छू गए,
फिर वहीं ला रख देती है।।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
०२.११.२०२३ ०३.५१अपराह्न (३६३)