।। गज़ल ।।
रूठ जाते हैं लोग
ग़र सच कहूँ तो सच में रूठ जाते हैं लोग
झूठ ही सही तारीफ़ सुन मुस्कराते हैं लोग
किससे सच बोलूं और ऐ-दिल किससे नहीं
नकली वाह वाही सुन लग गले जाते हैं लोग
मेरे नादाँ दिल अब वह बात ही नहीं
कुर्सी के वास्ते ज़मीर ईमान सब बेंच आते हैं लोग
गिरेबान ख़ुद का सना रक्खा है यहाँ पूरी तरह
क़माल ये है डटकर हवा फिर भी बनाते हैं लोग
मौसेरे ममेरे चचेरे भाई सब यहीं मिल जाएंगे
सियासत एक कुनबा सा यही बस बाँट खाते हैं लोग
धुले हुए दिखे दाग़ सब उनके बिल्कुल पाक साफ़
आजकल शान से कंधे उठा उठा नज़रें मिलाते हैं लोग
क्या हम लिखे हुए सबक़ बेमानी ही मान लें
गलत को सही सही को गलत यूँ दिखाते हैं लोग
चंद टुकड़े चंद झूठे वादे और चंद सिक्के
उछाले हुए भी आजकल शान से उठाते हैं लोग
हालात बदले हैं यक़ीनन कुछ ज़रूर यहाँ ये सच है
बहुत कम ही इस दौर सोए हुए को जगाते हैं लोग
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
२२.११.२०२३ ०८.४५पूर्वाह्न(३६८)