कुंडलियां
//गुदगुदी-०२//
//०१//
मदिरालय के द्वार पर,देखी भारी भीर।
पंक्ती लंबी लगी थी,जैसे मिल रही खीर।।
जैसे मिल रही खीर,मची थी मारामारी।
जीभ पै धरकें नोंन,गटकते दै दै तारी।।
घर पै जब पीकें गए,करी जाइ फिर रारि।
शासन के आदेश थे,हो सशक्त बस नारि।।
//०२//
रैली में भाषण बहुत,वादे मीठे बोल।
बगुला जैसे दिख रहे,रहे चाशनी घोल।।
रहे चाशनी घोल,भीड़ थी भारी आयी।
संशय थी बस एक,ये आयी या बुलवायी।।
खाने के पैकिट मिले,मिले करारे दाम।
बदली टोपी पहनके,कल फिर मिले तमाम।।
//०३//
मैं जब आया लौट घर,पत्नी जी नाराज़।
बोलीं तुम बौरे लगत,बिगड़ रहे हैं काज।।
बिगड़ रहे हैं काज,कलम सौतन मतवारी।
लगी गले आ चढ़ी,गयी थारी मतिमारी।।
सविनय जोड़े हाथ,पंडिताइन सुन वानी।
कलम हमारी जान,और तुम म्हारी रानी।।
//०४//
दफ्तर का बाबू मिला,नाम था लख्मीचंद।
बड़े साहब की कृपा से,कुर्सी मिली पसंद।।
कुर्सी मिली पसंद,दाम दारू नित पाता।
खाता वह भर भूख,और सबकूँ खिलवाता।।
खाने पर थी रोक,मगर इसका क्या करते।
मंत्री जी का हाथ,शिकायत करि का मरते।।
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
२४.११.२०२३ ०७.४०पूर्वाह्न