गज़ल-कदमों को बढ़ाया जाए

 

गज़ल

कदमों को बढ़ाया जाए


आँख से आँख को मिलाया जाए

ग़लत के सामने खुलके आया जाए


डर है उसे भी यक़ीनन बहुत जादा

क्यों न सरेआम उसे दिखाया जाए


चाहता है बस कि सब हाँ में हाँ कहें

सही गलत का फ़र्क तो बताया जाए


कुछ तो जिंदा हैं बेशक़ मुट्ठी भर सही

क्यों न मुट्ठी को फ़ौलाद बनाया जाए


जिंदा इंसान और इंसान की नस्लें

बेहद ज़रूरी है जिंदा नज़र आया जाए


सूरज की रोशनी और सोने का ख़ुमार

सोए हुओं को नींद से जगाया जाए


मिट्टी का कर्ज़ है हम पर पता तो है

कोशिश करें ज़रूर कर्ज़ चुकाया जाए


जिंदा हो अग़र तो ज़रा मुस्कराओ

फ़रेब छोड़कर दिल से मुस्कराया जाए


बिना चले दोस्तो मंज़िल नहीं मिलती

चलो चलें ख़ुद को ज़रा आज़माया जाए


डरोगे तो कदम साथ छोड़ सकते हैं

इसलिए बेधड़क कदमों को बढ़ाया जाए


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा “शिव”

स्वतंत्र लेखक

१३.१२.२०२३ ०८.०५पूर्वाह्न (३७५)



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