कुंडलियां //गुदगुदी ०४//

 

कुंडलियां

//गुदगुदी ०४//


//०१//

खद्दर कौ कुर्ता हस्यो,देखि के बिनके ढंग।

दाल में कालौ लगि रह्यौ,जेऊ बदलेंगे रंग।।

जेऊ बदलेगें रंग,करेंगे दल छल हेराफेरी।

दिंगे कल्ल बयान,दम्म घुट रही थी मेरी।।

देखत देखत बदल गए,घर घूरा और ठौर।

राजनीति में सगे कौ,मतलब है कछु और।।


//०२//

पेपर नकल और नकलची,बिनके पैरोकार।

नकलविहीन न कर सकी,इम्तहान सरकार।।

इम्तहान सरकार,प्रश्न यह बहुत चिढावै।

चोर चोर मौसेरे भाई,रबड़ी पूड़ी खावै।।

रोज़ रोज़ ही बढ़ रहा,नकल का कारोबार।

चुल्लू भर में डूब जउ,लै अपनी सरकार।।


//०३//

ऑफिस में जूता चलौ,लग्यौ जाइकें कान।

साहब कूँ तब भान भा,कोरी अपनी शान।।

कोरी अपनी शान,दबतु नहिं अपनों चेला।

साहब कूँ मालूम भा, चेला दै गयौ पेला।।

खबरि जि जूता ने करी,चलकें चारों ओर।

गली गली में है गयौ,जूत चले कौ शोर।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा “शिव”

स्वतंत्र लेखक

कवि

१७.०२.२०२४ ११.२८अपराह्न





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