कुंडलियां
।। गुदगुदी ०६।।
✍️।। ०१।।✍️
फागुन फाग अरु टोलियां,ढोलक रंग अबीर।
बहत बयार वसंत की,द्वार द्वार भई भीर।।
द्वार द्वार भई भीर,फाग गावहिं नर नारी।
जमघट भंग कौ रंग,नाँचते दय दय तारी।।
होरी अब लगती सकुचाती,कारण है का खोज।
क्यों दिन दूना बढ़ रहा,अनचाहा सा बोझ।।
✍️।।०२।।✍️
होरी में कम हीं दिखत,पहले सा अनुराग।
बस कोरी सी रह गयी “होरी”भागमभाग।।
“होरी”भागमभाग,बस्स थोरी सी रह गयी।
रंग लग़ाकें बात हँसति,इक गोरी कह गयी।।
होरी कौ मतलबु है यारा,मस्त मलंग मिज़ाज।
गले लगाए उसको भी झट,जो बैठा नाराज़।।
✍️।।०३।।✍️
लाल गुलाबी नीलौ पीलौ,उड़तौ दिखै गुलाल।
साली सलहज भौजी दुलहन,करि डारीं
सब लाल।।
करि डारीं सब लाल,कि झटकू रंग रगीलौ।
भंग रंग हुड़दंग तर्र हुइ,डोलै नीलौ पीलौ।।
पकरि लए फिर,दै दै पटके सबने झटकूलाल।।
बुरा ना मानो होली है जी,आना तुम हर साल।।
✍️।।०४।।✍️
गाँव के दददू भव्वर सींग,भव्वर करते आते।
लोग लुगाई वालक बूढ़े,सब मिल रंग लगाते।।
होरी में हम घेर के बिनकू,खूब पटकते नाली।
वे चिल्लाते हम नहीं सुनते,देते भजि भजि गाली।।
सम्मई थी सनेह था पहले,दिल से जुड़े थे लोग।
आज हवा बेढंगी बहती,बिगड़ रहे हैं योग।।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
१७.०३.२०२४ ०८.०८ पूर्वाह्न(३९७)
सम्मई-सहनशक्ति
भव्वर-हल्ला