कविता-अंतर्मन में कुछ शोर हुआ...

 

कविता

अंतर्मन में कुछ शोर हुआ…


मन जब जब जब,कमजोर हुआ,

अंतर्मन में कुछ शोर हुआ।। 

कुछ टूटे स्वप्न उमीदों के,

कुछ जगे स्वप्न उम्मीदों के।।

भागता रहा चुपचाप मौन,

टूटे दिल की सिसकी बोली।।

स्वयं जान कौन? पहचान कौन?


अंतर बल ने तब दिया साथ,

सच में जैसे छू लिया हाथ।।

फिर लगा ह्रदय प्रफुल्लित सा,

मन लगा लगा अति प्रमुदित सा।।

फिर शीतल,नर्म,कठोर हुआ,

मन जब जब जब,कमजोर हुआ।।

अंतर्मन में कुछ शोर हुआ…


तुरपन उधड़ी मन में मन की,

रिश्ते रिसते अपनेपन की।।

हम लगे अकेले विलग विलग,

फिर लगे समर्पित साथ साथ।।

फिर सिली वही उधड़ी तुरपन,

मन मस्त मलंग,विभोर हुआ।।

मन जब जब जब,कमजोर हुआ,

अंतर्मन में कुछ शोर हुआ…


जागे जागे नव स्वप्न जगे,

सच्चे अच्छे सब स्वप्न लगे।।

था वक्त उसे बस चलना था,

बस खाली हाथ निकलना था।।

कदमों ने जोर लगाया तो,

उम्मीद जगी मैं आया तो।।

ना आंख लगी ना चैन मिला,

गयी रात गुजर गए स्वप्न बिखर।।

गयी रात घोर फिर भोर हुआ,

मन जब जब जब,कमजोर हुआ।।

अंतर्मन में कुछ शोर हुआ…


बोला मन मन से मन की बात,

क्यों चिंतित हो क्यों हो उदास।।

ना रात रुकी ना दिवस रुका,

क्यों हो चिंतित क्यों झुका झुका।।

सूरज आया किरणों के संग,

हर ओर उजाला जोर हुआ।।

मन जब जब जब,कमजोर हुआ,

अंतर्मन में कुछ शोर हुआ… 


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा “शिव”

स्वतंत्र लेखक

०१.०४.२०२४ ११.२१ पूर्वाह्न(४००)




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