।। कविता ।।
नर धीर नहीं डरते भय से
नर धीर नहीं डरते भय से,
अंतर भय से जग के भय से।।
वे सजग अथक मग चलते हैं,
नर धीर सहज पग धरते हैं।।
हो अरिदल खड़ा बड़ा भारी,
डिगते न तनिक दृढ़ व्रतधारी।।
क्या अंधड क्या,झंझावत क्या?
क्या कुपित सूर्य क्रोधानल क्या?
डिगते भी नहीं रुकते भी नहीं,
होकर अधीर झुकते भी नहीं।।
संयमित कदम धर चलते हैं,
नर धीर सहज पग धरते हैं।।
हों गह्वर शिखर घने जंगल,
हो छद्म शत्रु सुख दुःख मंगल।।
सम भाव सहज जो होता है,
वह मनुज अजेय फिर होता है।।
विपरीत वक्त शिक्षक बन कर,
हमको जीना सिखलाता है।।
मानव तब धीर मनुज बनता,
जब ठोकर वह स्वयं खाता है।।
ठोकर सिखलाती पग धरना,
ठोकर सिखलाती डग भरना।।
ठोकर ही ज्ञान कराती है,
नर को नर धीर बनाती है।।
जब जब निजबल नर खड़ा हुआ,
निश्चित वह जग में बड़ा हुआ।।
अंतर के भय को मार मार,
चल अभय करे वसुधा पुकार।।
हारा भय से स्वयं हीं स्वयं से,
जो हार रहा नित नित भय से।।
उसको उसका भय मारेगा,
उसको कब कौन उबारेगा।।
जो हो संयुत निज शक्ती से,
उसका मग बाधक नहीं हुआ।।
जो नर हो शांत विचारवान,
उसने सब पाया गगन छुआ।।
पग धरो करो कुछ काम नया,
हो नाम गीत गाये वसुधा।।
चल कदम बढ़ा चल जाग जाग,
चल शोक त्याग भय कष्ट त्याग।।
है जलधि,धरा,अंबर तेरा,
है वैभव,पद,दल सब तेरा।।
अपने कदमों में दम रखना,
निज कंधों में दमख़म रखना।।
आ चल चलते हैं परख करें,
स्वयं ही स्वयं से कुछ तरक करें।।
फिर समझें सोचें जानें कुछ,
हम क्या हैं चल पहचानें कुछ।।
जो शांत चित्त,संयमित,सहज,
जो धैर्यवान जो ज्ञानवान।।
वे नित नित नित्य निखरते हैं,
नर धीर सहज पग धरते हैं।।
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
१०.०४.२०२४ ०४.५१ पूर्वाह्न (४०२)