।। कविता ।।
मनुष्य, मनुष्य को छले
मनुष्य, मनुष्य को छले,
मनुष्य रौंदता चले।
मनुष्य भेष बदल बदल,
नव मुखौटों में पले।
मनुष्य, मनुष्य को छले…
मनुष्य देव,मनुष्य दैत्य,
है मनुष्य नाग भी।
मनुष्य शुद्ध चित्त भाव,
है मनुष्य आग भी।
स्वयं जले जलाए और,
क्रोध भस्म चाल वैर।
मनुष्य ही मनुष्य भोज,
द्वेष अग्नि स्वयं जले।
मनुष्य,मनुष्य को छले…
है मनुष्य, मनुष्य शत्रु
है मनुष्य, मनुष्य मित्र।
मनुष्य, मनुष्य से डरे
मनुष्य,मनुष्य से लरे।
मनुष्य की प्रचंड भूख,
चाट जाए ताल रूख।
छल करे उसी के संग,
शरण पाए जिस तले।
मनुष्य,मनुष्य को छले…
मनुष्य ही मनुष्य को,
मनुष्यता सिखाता है।
मनुष्य ही मनुष्य को,
दनुजता सिखाता है।
स्वार्थ लोभ स्वांग ढोंग,
लिप्त सा मनुष्य है।
अनीति रुष्ट क्रुद्ध खिन्न,
जला जले चला चले।
मनुष्य,मनुष्य को छले…
सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा “शिव”
स्वतंत्र लेखक
०२.०७.२०२४ १०.३४पूर्वाह्न(४१४)