कविता-मैं ढूँढ़ रहा नित हिंदू को

 

कविता

मैं ढूँढ़ रहा नित हिंदू को


मैं ढूँढ़ रहा नित हिंदू को,

मिलता ही नहीं मिलता ही नहीं।।

मिल जाएं जाति अनेक यहां,

भांति भांति  बहु भांति  यहां।।


बामण मिलता बणियाँ मिलता,

यहॉ शूद्र मिलत क्षत्रिय मिलता।।

मिलें अनेक अनेक प्रथाएं,

मिलें अनेक अनेक कथाएं।।


खापों कुनबों का जोर यहाँ,

है निम्न उच्च का शोर यहॉं।।

खोता जाता नित नित हिंदू

सोता जाता नित नित हिंदू


भूगोल समझ कुछ खोल समझ,

षणयंत्र समझ और बोल समझ।।

स्वयं स्वयं ही स्वयं से हारै मत,

स्वयं स्वयं का बाग उजारै मत।।


हर ओर जाति का शोर मिला,

पुरजोर मिला  हर ओर मिला।।

मैं खोज तलाश रहा हिंदू

हर रोज तलाश रहा हिंदू


कुछ टूट रहे फिर छूट रहे,

जा रहे छोड़ कर रूठ रहे।।

बटता जाता नित नित हिंदू

घटता जाता नित नित हिंदू


कोई घोंप रहा खंजर उर में,

दिखता ही नहीं दिखता ही नहीं।।

मैं ढूँढ़ रहा नित हिंदू को,

मिलता ही नहीं मिलता ही नहीं।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा “शिव”

स्वतंत्र लेखक

३१.०८.२०२४ ११.००पूर्वाह्न (४२३)



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

buttons=(Accept !) days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !