कविता-⛱️🌧️बरखा🌧️⛱️

⛱️🌧️बरखा🌧️⛱️


मास मास भर, बरखा गीत सुनाती,

खेत पनाले नदी पोखरा भर इतराती।। 

खूब गरजती खूब बरसती,तब की बारिश,

एक बार आ जाइ,न जाती तब की बारिश।।


छप्पर के नीचे खाट,खाट पै गिरती बूंदे,

सो जाते हम मगन,कि अखियां मूंदें मूंदें।।

वह बर्षा ऋतु काल, बरोसी दूध चबैना,

था अद्भुत वह वक्त,सहज वर्णत वरनैना।।


सारस पंछी खेतों में भोर सांझ मिल जाते,

नृत्य मग्न मिलते मयूर मेढ़क दादुर टर्राते।।

कच्ची थी पगडंडी,मिलते पगपग पथ पर,

केंचुए गिजाई मेढ़क मिढ़की झींगुर दादुर।।


फूँस बांस की छत्त टपकते टपटप जलकण,

नींद उचक जाती जब सुनते पड़पड़ पड़पड़।।

दाल अरहर की मक्का के दलिया संग खाते,

भूज भूज के भुट्टे खाते बुढ़िया आग जलाते।।


बूंद बूंद से सागर भरता कहती बर्खा प्यारी,

पेड़ लगाओ मैं आऊंगी सुन लो बैन हमारी।।

जाति पाँति गोरे कारे का भेद न करती,

करती सीधी चोट खोट का भेदन करती।।


मद गरमी का चूर चूर करने आती रहती हूँ,

सब हैं एक समान बात सच सच कहती हूँ।।

जीवन जीने का ज्ञान हमें सिखलाती बारिश,

एक बार आ जाइ न जाती तब की बारिश।।


सर्वाधिकार सुरक्षित

शिव शंकर झा “शिव”

स्वतंत्र लेखक

१३.०९.२०२४ ११.२७ पूर्वाह्न(४२५)

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